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Shri Ashtapad Maha Tirth
मनाया जाता है।
आरम्भिक जैन आगम साहित्य में सिद्धान्तों पर महत्त्व दिया गया है तीर्थों पर कम यहाँ सबसे पूर्व कल्याणकों को तीर्थ के रूप में बताया गया है। गर्भ (च्यवन) जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण । जिसमें निर्वाण स्थल का महत्त्व ज्यादा है जैन साहित्य में पाँच तीर्थों की महिमा का विशेष वर्णन मिलता है- “आबू, अष्टापद, गिरनार, सम्मेतशिखर, शत्रुञ्जय सार । ये पाँचे उत्तम ठाम, सिद्धि गया तेने करूँ प्रणाम । "
निर्वाण स्थलों के विषय में रविसेन ने पद्मपुराण में लिखा है कि "Many are the great souls who conquered their passions and attain release in times long passed; though these great souls have now vanished from our sight, we can still see the places that they Sanctified by their glorious acts."
आचार्य पूज्यपाद ने निर्वाण भक्ति में लिखा है
"Just as cakes become sweet when they are coated with sugar frosting so do places in this world become holy and pure when a Saint abides in them" (Pujyapada-fafur afara) |
जब मनुष्यों का तीर्थों में आवागमन अवरुद्ध हो जाता है राजनैतिक या भौगोलिक कारणों से तो अपने पहुँच के क्षेत्र में ही उस तीर्थ की यादगार प्रतीक बनाकर पूजा करते हैं। अष्टापद जो प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव की निर्वाण भूमि है उसके विषय में भी ऐसा ही हुआ है । लेकिन आज जो साहित्यिक स्रोत हमारे पास हैं उनसे हमें अष्टापद की जानकारी मिलती है जिसके आधार पर अष्टापद की अवस्थिति का पता चल सकता है ।
आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर हुआ था जिसका विवरण कल्पसूत्र में हमें मिलता है"चउरासीइं पुव्वसय सहस्साइं सिव्वाउयं पालइत्ता खीणे वेयणिज्जाउज - णाम-गोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए सुसम दुस्समाए समाए बहु बिइक्कंताए तिहिं वासेहिं अद्ध नवमेहिं य मासेहिं सेसेहिं जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे, माह बहुले, तस्स णं माह बहुलस्स तेरसी पक्खेणं उप्पिं अट्ठावय सेल-सिहरंसि दसहिंअणगारसहर-सेहिं सिद्धिं चोइसमेण भत्तेण अपाणएणं अभिइणा नक्खत्तेणं जोगभुवा गएणं पुव्वण्ह-काल- समयंसि संपलियंक - निसन्ने कालगए विइक्कंते जाव सव्व- दुक्ख पहीणे ।। १९९ ।।
चौरासी लाख पूर्व वर्ष की आयु पूरी होने पर उनके वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों का क्षय हो गया। उस समय वर्तमान अवसर्पिणी के सुषम - दुषम नामक तीसरे आरे के बीत जाने में तीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी बचे थे। हेमन्त ऋतु का तीसरा महीना और पाँचवां पक्ष चल रहा था। माघ कृष्ण तेरस के दिन अष्टापद पर्वत के शिखर पर दोपहर से पूर्व ऋषभदेव १० हजार श्रमणों के साथ जलरहित चतुर्दश भक्त (छह उपवास) तप का पालन करते हुए पर्यंकासन में ध्यानमग्न बैठे थे। तब अभिजित नक्षत्र का योग आने पर वे कालधर्म को प्राप्त हुए । समस्त दुःखों से पूर्णतया मुक्त हो गये ।
जैन परम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने सर्वज्ञ होने के पश्चात् आर्यावर्त के समस्त देशों में विहार किया, भव्य जीवों को धार्मिक देशना दी और आयु के अन्त में अष्टापद (कैलाश पर्वत) पहुँचे। वहाँ पहुँचकर योगनिरोध दिया और शेष कर्मों का क्षय करके माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन अक्षय शिवगति (मोक्ष) प्राप्त की ।
भगवान् ऋषभदेव ने अष्टापद (कैलाश) में जिस दिन शिवगति प्राप्त की उस दिन समस्त साधु-संघ ने दिन को उपवास तथा रात्रि को जागरण करके शिवगति प्राप्त भगवान् की आराधना की, जिसके फलस्वरूप यह तिथि रात्रि शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध हुई । Adinath Rishabhdev and Ashtapad
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