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Shri Ashtapad Maha Tirth
किया, तथा चक्रवर्ती भरत ने उन स्तूपों के समीपस्थ क्षेत्र में श्री ऋषभदेव से लेकर वर्धमान महावीर तक चौबीस तीर्थङ्करो की उन तीर्थङ्करों को शरीर तथा वर्ण के अनुरूप रत्नोंमयी प्रतिमाओं वाले जिनमन्दिर का निर्माण कराया था । इस प्रकार नरेन्द्र और देवेन्द्रों द्वारा इस तीर्थ की स्थापना हुई । तभी से (गुजराती) माघ वदि १३ को ऋषभदेव की निर्वाण रात्रि को देवों, दानवों, मानवों, देवेन्द्रों, नरेन्द्रों ने मिलकर प्रभु ऋषभदेव के निर्वाण कल्याणक की पूजा करके महाशिवरात्रि का पर्व मनाया, जो आजतक चालु है । कोई शिवलिंग के उदय (तीर्थ स्थापना) की तिथि माघ वदि १४ मानते हैं । इसका आशय यह प्रतीत होता है कि श्री ऋषभदेव के निर्वाण के दूसरे दिन वहाँ जिनमन्दिर और स्तूपों की नींव रखकर तीर्थक्षेत्र की स्थापना की होगी । इसलिए महाशिवरात्री माघ वदि १३ की तथा तीर्थ स्थापना (शिवलिंग का अवतार) माघ वदि १४ की मान्यता चालु हुई । भरत चक्रवर्ती ने जिस जिनमन्दिर का निर्माण कराया था उसका नाम सिंहनिषद्या रख दिया । सिंहनिषद्या के निर्माण के बाद भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत को कारीगरों द्वारा तराश करवाकर एकदम सीधी बहुत ऊँची-ऊँची आठ सीढ़ियों के रूप में परिवर्तित कर दिया । ताकि दुष्ट लोग तथा मतांध लोग इसे हानि न पहुँचा सकें । तबसे इस पर्वत का नाम अष्टापद (आठ सीढ़ियों वाला) प्रसिद्ध हुआ । दक्षिण भारत तथा गुजरात सौराष्ट्र में वहाँ की माघ वदि १३ को शिवरात्रि मनाई जाती है । उत्तर भारत में फाल्गुण कृष्णा (वदि) त्रयोदशी को मनाई जाती है । यह अन्तर दक्षिण और उत्तर भारत के पंचांगों के अन्तर के कारण मालूम होता है । परन्तु वास्तव में दोनों में एक ही रात्रि आति है जिस रात्रि को यह पर्व मनाया जाता है । ('कालमाघवीयनागर खण्ड') इस अन्तर पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डालता है। जो इस प्रकार है ....
“माघस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुणस्य च । कृष्णा त्रयोदशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तितः ॥"
अर्थात्... दक्षिण (गुजरात सौराष्ट्र आदि) भारत वालों के माघ मास के उत्तर पक्ष की तथा उत्तर भारत वालों के फाल्गुन मास के प्रथम पक्ष की कृष्णा त्रयोदशी को शिवरात्रि कही है । यानी उत्तर भारतवाले मास का प्रारम्भ कृष्ण पक्ष से मानते हैं और दक्षिण एवं पश्चिम भारत वाले मास का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष से मानते है । पश्चात् जो कृष्ण पक्ष आता है वह दक्षिण व पश्चिम भारत वालों का माघ मास का कृष्ण पक्ष होता है और वही पक्ष उत्तर भारत वालों का फाल्गुन मास का कृष्ण पक्ष होता है । इसलिए गुजराती माघ कृष्णा त्रयोदशी को ही उत्तर भारत की फाल्गुन कृष्णा-त्रयोदशी को श्री ऋषभदेव का निर्वाण होने के कारण उसी वर्ष की रात्रि से प्रारम्भ होकर आज तक उत्तर भारत की फाल्गुन वदी त्रयोदशी की रात्रि को ही महाशिवरात्रि पर्व मानने की प्रथा चली आ रही है । इसलिए इस पर्व का सम्बन्ध श्रीऋषभदेव के निर्वाण के साथ ही है । ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । शिवोपासक शैव भी इसी रात्रि को शिवलिंग की उपासना करते हैं । इससे भी ऋषभ और शिव एक ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं ।
* अष्टापद यानि कैलाश पर्वत :
प्राचीन समय से यह खोज अब तक हो रही है कि तीर्थ अष्टापद यानि कैलाश पर्वत हिमालय में कौन सी जगह है । यज्ञा शास्त्रों में पूर्वाचार्यों ने ज्ञान रूपी विचारों से और जानकारों ने भी ऐसा लिखा है कि यह कैलाश पर्वत हिमालय में है । जहाँ से गंगा आती है और भगवान् शिव या शंकर कैलाशपति के स्थान की जगह है, जिसका पूरा पता नहीं लग सका है । जैन ग्रन्थों में इस पर्वत का स्थान अयोध्या की उत्तर दिशा में है जिसको हिम-प्रदेश बतलाया गया है । जैन ग्रन्थों में इस पर्वत का नाम अष्टापद Jainism in Central Asia
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