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Shri Ashtapad Maha Tirth
केशान्तभूमि, जिह्वा, तालु, श्रीवत्स, चुचुक, हाथ और पाँवों के तले तपनीय स्वर्णमय हैं। नयनपद्म, कनीनिकाएँ, मंशु, भवें, रोम और शिर के केश अरिष्ट-रत्नमय हैं। ओष्ठ विद्रुममय हैं, दन्त स्फटिकमय हैं, शीर्षघटिका वज्रमय हैं। अन्दर लोहिताक्ष प्रतिषेकवाली स्वर्णमय नासिकाएँ हैं। लोहिताक्ष प्रतिषेक प्रान्त वाले अंकमय लोचन हैं। उन प्रतिमाओं के पृष्ठ भाग में प्रत्येक के एक-एक मुक्ता-प्रवाल-जाल-कंस-कोरंट मल्लदाम वाली, स्फटिक, मणिरत्न के दण्ड वाली, श्वेत छत्र के धारण करनेवाली, छत्रधर प्रतिमाएँ हैं। उनके दोनों और प्रत्येक उठाए हुए मणिचामरों वाली रत्नमयी चामर-धारिणी प्रतिमाएँ हैं। प्रतिमाओं के आगे दो-दो नागप्रतिमाएँ, दो-दो यक्षप्रतिमाएँ, दो-दो भूतप्रतिमाएँ, दो-दो कुण्डधारिणी प्रतिमाएं सर्वाङ्गोज्ज्वल रत्नमयी कृताञ्जलि पर्युपासना करती हैं। तथा देवछंदा में चौबीस रत्न घण्टे, चौबीस माणिक्य दर्पण और वैसे ही स्वर्णमयी स्थान स्थित दीपिकाएँ हैं। तथा रत्नकरण्डक पुष्प चंगेरियाँ, लोमहस्त, पटलिकाएँ, आभरणकरण्डक कनकमय हैं। धूपदहनक, आरतियाँ, रत्नमयमंगलदीप, रत्नमय भंगार, रत्नमय स्थाल, सोने के प्रतिग्रह, रत्नचन्दन के कलश, रत्नमय सिंहासन, रत्नमय अष्टमङ्गल, स्वर्णमय तेल के डब्बे, कनकमय धूपभाण्ड और स्वर्णमय कमलहस्तक हैं। ये सब प्रत्येक प्रतिमा के आगे होते हैं। वह चैत्य चन्द्रकान्त शाल से शोभित हैं। ईहामृग, वृषभ, मकर, तुरंगम, नर-किन्नर, विहग, वालग, रूरू, शरभ, चमरी, गज, वनलताओं से विचित्रित रत्नस्तम्भों से समाकुल है। स्वर्ण के ध्वजदण्ड मण्डित पताका है। उपरिस्थित किंकिणी शरद से मुखर ऊपर पद्मराग कलश से विराजित और गोशीर्ष चन्दनरस के हस्तकों से लांछित है। विचित्र चेष्टाओं वाली, अधिष्ठित नितम्ब वाली माणिक्य की शालभंजिकाएँ, चन्दनरस से लिप्त कलशयुग से अलंकृत द्वारदेश के उभय पक्ष में शोभायमान हैं। तिरछी बाँध के लटकाई हुई धूपित-सुगन्धित सुन्दर मालाएँ, पंचवर्ण कुसुम रचित गृहतल, कपूर, अगर, कस्तूरी, धूपधूम-धारित अप्सरागण संकीर्ण, विद्याधरीपरिवृत्त, आगे-पीछे और पार्श्व में चारु चैत्य पादपों, मणिपीठिकाओं से विभूषित भरत की आज्ञा से यथाविधि वार्घकिरत्न के द्वारा निष्पादित है। वहीं दिव्य रत्न-शिलामय ९९ भाइयों की प्रतिमाएं बनवाईं। सुश्रूषा करती हुई अपनी प्रतिमा भी बनवाईं। चैत्य के बाहर भगवान् ऋषभदेव स्वामी का एक स्तूप और ९९ भाइयों के स्तूप करवाए। मनुष्य लोग यहाँ आवागमन करके आशातना न करें इसलिए लोहयंत्रमय आरक्षक पुरुष बनवाए जिससे वह अगम्य हो गया। पर्वत की चोटियाँ भी दण्डरत्न से तोड़ दीं, अतः वह गिरिराज अनारोहणीय हो गया। योजन-योजन के अन्तर से मेखलारूप आठ सीढियाँ-पदों द्वारा मनुष्यों के लिए अलंध्य कर दिया। जिससे अष्टापद नाम प्रसिद्ध हो गया।
फिर काल-क्रम से चैत्यरक्षण के निमित्त सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने दण्डरत्न से पृथ्वी को खोद कर सहस्र योजन की परिखा(खाई) की। दण्डरत्न से गंगातट को विदीर्ण कर जल से पूर्ण किया। तब गंगा को खाई में भरने से अष्टापदासन्न ग्राम-नगर, पुरादि डूबने लगे। अतः उसे दण्डरत्न से निकाल कर कुरु देश के बीच से, हस्तिनापुर के दक्षिण से कोशल देश के पश्चिम, प्रयाग से उत्तर, काशी देश से दक्षिण, वत्सदेश में दक्षिण से मगध के उत्तर से नदी का मार्ग काटते हुए सगरादिष्ट जण्हपुत्र भागीरथ कुमार ने पूर्वी समुद्र में उतार दिया। तब से गंगासागर तीर्थ हो गया।
इसी पर्वत पर ऋषभदेव स्वामी के आठ पौत्र, और बाहुबलि-प्रमुख निनाणवें पुत्र भी स्वामी के साथ सिद्ध हुए। इस प्रकार एक सौ आठ उत्कृष्ट अवगाहना से एक समय में आश्चर्यभूत सिद्ध हुए।
श्री वर्द्धमान स्वामी ने स्वयं कहा कि “जो मनुष्य इस पर्वत पर स्वशक्ति से चढ़कर चैत्यों की वन्दना करेगा वह इसी भव में मोक्ष प्राप्त होगा।" यह सुन कर लब्धिनिधान गौतम स्वामी इस पर्वतश्रेष्ठ पर चढ़े। चैत्यों की वन्दना कर अशोक वृक्ष के नीचे वैश्रमण के आगे तप से कृश अंग का वखान करते हुए स्वयं उपचित शरीर वाले अन्यथा वादकारी हैं-ऐसे उसके विकल्प को निवारण करने के लिए पुण्डरीक अध्ययन प्रणीत किया। पृष्ट देह वाला पुण्डरीक भावशुद्धि से सर्वार्थसिद्ध गया और दुर्बल शरीर वाला कण्डरीक सातवीं नरक गया। यह पुण्डरीक अध्ययन सामानिक देव वैश्रमण ने गौतम स्वामी के मुख से सुनकर अवधारित किया। वे ही तुंबवण Ashtapadgirikalp
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