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विश्वामित्रने बड़ी तपस्या की, परन्तु वशिष्ठ उन्हें 'राजर्षि' ही कहते रहे।
विश्वामित्रका क्रोध जाग उठा। उन्होंने वशिष्ठजीके सभी पुत्रोंको मरवा डाला! परन्तु यह सब देखते हुए भी वशिष्ठ शान्त रहे। इधर विश्वामित्रने वशिष्ठको भी समाप्त कर देनेका संकल्प कर लिया।
सामनेके मुक़ाबलेमें तो विश्वामित्र कई बार मुँहकी खा चुके थे। इसलिए वशिष्ठकी हत्या करनेके इरादेसे वे रातको उनके आश्रममें पहुँचे ।
पूर्णिमाकी रात्रि थी। निर्मल आकाश, चारो ओर शान्ति छाई हुई थी। महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धतीके साथ कुटियासे बाहर एक वेदिकापर विराजमान थे।
'कितनी साफ़ कितनी निर्मल चांदनी है !' अरुन्धतीने कहा । 'ऐसी उजली जैसे विश्वामित्र की तपस्याका तेज !'
वृक्षोंकी झुरपुटमें छिपे हुए विश्वामित्र यह सुनकर चौंक पड़े-'एकान्तमें अपनी पत्नीसे अपने शत्रुकी, अपने पुत्रोंके हत्यारेकी, प्रशंसा करनेवाले यह महापुरुष ! और इनकी हत्याका संकल्प लेकर रातमें चोरकी तरह आनेवाला मैं नरपिशाच !'
महात्मा वशिष्ठके हृदयको विशाल उदारताको देखकर विश्वामित्रका अन्तरंग बदल गया। उन्होंने अपने तमाम अस्त्र-शस्त्र फेंक दिये और दौड़कर वशिष्ठके सन्मुख ज़मीनपर जा पड़े-'मझ अधमको क्षमा करें।'
पहचाने हुए स्वरको सुनकर अरुन्धती चकित हो गईं । महर्षि वशिष्ठ वेदीसे कूदे और चरणोंमें पड़े हुए व्यक्तिको उठानेके लिए झुकते हुए स्नेहपूर्ण कण्ठसे बोले-'ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ।'
उसको दे मौला लखनऊका नवाब आसिफुद्दौला बड़ा दानी था। उसके यहाँसे कोई खाली हाथ नहीं आता था। एक बार वह दरबारमें बैठा हुआ था कि उसके कानमें किसी फ़क़ीरके ये शब्द पड़े
सन्त-विनोद