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नामदेवजीको उत्तर मिला कि राँका कुछ भी लेना नहीं चाहता; तुम्हे देखना है तो कल सुबह वनके रास्ते पर छिप कर देखना।
दूसरे दिन राँकाने जंगलके रास्ते पर मुहरोंसे भरी थैली जो देखी तो उसपर धूल डालने लगे। इतने में उनकी स्त्री भी आ गई। उसने पूछा, 'किस चीजको धूलसे ढंक रहे हो ?' राँकाने कहा- 'यहाँ एक मुहरोंकी थैली पड़ी है; मैंने सोचा कि तुम पीछेसे आ रही हो, कहीं महरोंके लिए लोभ पैदा हो गया तो साधनामें विघ्न होगा, इसीलिए उसे धूलसे ढंक रहा था।'
परम वैराग्यवती स्त्री इस बातको सुन कर बोली-'सोने और धूलमें फ़र्क ही क्या है ? आप धूलसे धूलको क्या ढंक रहे है ?' ऐसे बांके वैराग्यके कारण ही उसका नाम 'बाँका' पड़ा था। नामदेवजी राँका-बाँकाके वैराग्यको देख कर अपनेको भी तुच्छ मानने लगे।
भक्त-वत्सल भगवान्ने उस दिन राँका-बाँकाके लिए जंगलकी सारी सूखी लकड़ियोंके बोझे बाँध कर रख दिये। राँका-बाँकाने समझा कि किसी औरके होंगे। परायी चीज़ छूना पाप समझ कर उन्होंने उस तरफ़ ताका तक नहीं, और सूखी लकड़ियाँ न मिलनेसे दोनों खाली हाथ वापस आ गये। उस दिन दोनोंको उपवास करना पड़ा। वे सोचने लगे कि यह तो मुहरें आँखसे देखनेका फल है, हाथ लगाने पर तो न मालूम क्या होता!
हजरत गौसुल हज़रत गौसुल एक बड़े साधु थे। उन्हे बचपनसे विद्याका शौक़ था। उन दिनों बग़दाद शहर विद्याओं और कलाओंका बड़ा केन्द्र था। गौसुलने विद्याभ्यासके लिए बग़दाद जानेकी अपनी माँसे आज्ञा माँगी। माताने अपने पुत्रका विद्या-प्रेम देखकर खुशीसे इज़ाज़त दे दी और चालीस अशर्फियाँ लड़केके कुर्ते में बग़लके नीचे होशियारीसे सी दी, जिससे
सन्त-विनोद