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स्त्री बोली- 'आप तो हँसते हैं, मुझे यह रंज खाये जा रहा है कि उसके चले जानेपर उसकी कच्ची गृहस्थीका क्या होगा !'
पति –'भई ! त्याग - वैराग्यकी लम्बी तैयारी नहीं करनी पड़ती, वह तो सहज और एकदम होता है । देख ! इस तरह -' यह कहते हुए वह सब कुछ छोड़कर सीधा वनको चला गया और फिर कभी न लौटा ।
शोभा
रामशास्त्री पेशवा माधवरावके गुरु थे, मंत्री थे और राज्यके प्रधान न्यायाधीश थे । फिर भी निहायत सादगी से एक मामूली घरमें रहते थे ।
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गई । उनकी अत्यन्त
किसी पर्व के समय उनको पत्नी राजभवन में साधारण वेशभूषा देखकर रानी चकित रह गई । कपड़े और रत्नजटित गहने पहनाये ।
रानीने उन्हें बेशक़ीमती
विदाके वक़्त उन्हें पालकी में भेजा । पालकी रामशास्त्रीके घर पहुँची । कहारोंने दरवाज़ा खटखटाया । द्वार खुला और फ़ौरन् बन्द हो गया । कहार बोले- 'शास्त्रीजी, आपकी धर्मपत्नी आई हैं, दरवाज़ा खोलिए ।'
शास्त्रीजी बोले—'वस्त्राभूषणोंसे सजी हुई ये कोई और देवी है । मेरी ब्राह्मणी ऐसे कपड़े और गहने नहीं पहन सकती । तुम लोग भूलसे यहाँ चले आये हो ।'
शास्त्रीजीकी पत्नी अपने पतिदेव के स्वभावको जानती थीं । उन्होंने कहारोंसे लौट चलनेके लिए कहा । रनवासमें आकर रानीसे कहा - 'इन वस्त्र और आभूषणोंने तो मेरे घरका ही द्वार मेरे लिए बन्द करा दिया !' सब कपड़े, गहने उतारकर और अपनी साड़ी पहनकर पैदल घर लौटीं ।
शास्त्रीजी बोले- 'कीमती गहने और कपड़े या तो राजपुरुष शोभाके लिए पहनते हैं या मूर्ख अपनी मूर्खता छिपाने के लिए पहनते हैं । सत्पुरुषोंकी शोभा तो सादगी से ही है । '
सन्त-विनोद
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