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रानियोंको त्यागते देखकर विद्युच्चर डाकू भी अपने पाँच सौ साथियों समेत साधु बन जाता है ( पृ० ४८ )।
इस प्रकारको तीब्र अनासक्ति और वैराग्यके पीछे प्रभुका प्रेम अपना जादू दिखला रहा होता है। और जहाँ प्रेम है वहाँ अद्भुत शक्ति प्रकट होती है। देखिए, छह वर्षकी एक लड़की अपनी गोदमें अपने छोटे भाईको लिये पहाड़ीपर चढ़ रही है । कोई पूछता है-"यह लड़का तो तेरे लिए बहुत भारी है !" तो बोली-"बिलकुल भारी नहीं है, यह तो मेरा भाई है" ( पृ० ३९ )। है न प्रेमका जादू ! मीरा तो प्रेम दीवानी थी ही। उसी जैसी प्रेमोन्मादिनी थी रबिया। उससे पैग़म्बर पूछते है : 'रबिया, तू मुझसे प्रेम करती है ?' और वह मदमाती जवाब देती है : 'ओ खुदाके पैग़म्बर, आपसे कौन प्रेम नहीं करता ? लेकिन मैं ईश-प्रेममे इतनी सरशार रहती हूँ कि किसी औरकी मुहब्बतके लिए गुंजाइश ही कहाँ ?' (पृ. ४५)। सुकरातको प्रेमपर बोलता सुनिए- "प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्यकी भूख है, प्रेमी प्रेमके द्वारा अमरत्वकी तरफ़ बढ़ता है, विद्या, पुण्य, यश, उत्साह, शौर्य, न्याय, श्रद्धा और विश्वास ये सब उस सौन्दर्यके ही रूप हैं। आत्मिक सौन्दर्य ही परम सत्य है। और सत्य वह मार्ग है जो परमेश्वर तक पहुंचा देता है" (पृ० १०६ ) । अफ़लातून इस व्याख्याको सुनकर सुकरातका दीवाना हो गया । ऐसे उत्कट प्रेमसे प्रेरित व्यक्तिको कोई त्याग करते वक़्त न तो कोई तैयारी करनी पड़ती है न कोई दुःख होता है (पृ० १४ )। ऐसी सच्ची प्रेम दृष्टिको क्रियाकाण्ड ( formalities ) को परवा नहीं होती । इसीलिए नामदेवने भगवान्के अभिषेक-जलको प्यासे गधेको पिला दिया ! जिसके हृदयमें दयाभाव और सहानुभूति नहीं है उसे अभिषेकसे क्या मिलनेवाला है ? सहानुभूतिपूर्ण प्रेम ही स्वपर-कल्याणकारी होता है। वृक्षकी छाल उतारनेमें क्या दुःख होता है यह जाननेके लिए अपनी चमड़ी उतारकर देखनेवाला नाम, इस उत्कट सहानुभूतिके प्रतापसे, सन्त नामदेव हो जाता