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'भद्रे !' भिक्षु आकर मस्तक झुकाये उसके सामने खड़ा हो गया और अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया ।
'आप ऊपर पधारें ! यह मेरा भवन, मेरी सब सम्पत्ति और खुद मैं अब आपकी हूँ। मुझे आप स्वीकार करें।'
'मैं तुम्हारे पास फिर आऊँगा।' 'कब?' 'वक़्त आनेपर !' कहते हुए भिक्षु आगे बढ़ गया।
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शहरसे बाहर रास्तेपर एक स्त्री ज़मीनपर पड़ी थी। कपड़े मैले-कुचैले और फटे हुए, सारे शरीर में घाव जिनसे बदबू उड़ रही थी। यह औरत थी वासवदत्ता ! अपने दुराचारसे इस भयंकर रोगका शिकार हो गई थी। सम्पत्ति नष्ट हो गई थी। अब वह निराश्रित मार्गपर पड़ी थी।
एकाएक एक भिक्षु उधरसे निकला और उसके पास आकर बोला'वासवदत्ता ! मैं आ गया हूँ।'
'कौन ?' उस नारीने बड़े कष्टसे उसकी तरफ़ देखनेको कोशिश की।
"भिक्षु उपगुप्त ।' भिक्षुने वहीं बैठकर उसके घाव धोने शुरू कर दिये।
'तुम अब आये ? अब मेरे पास क्या धरा है। मेरा यौवन, सौन्दर्य, धन आदि सभी कुछ तो नष्ट हो गया।' नर्तकीकी आँखोंसे आँसू बह निकले।
'मेरे आनेका समय तो अभी हुआ है ।' भिक्षुने उसे धमका शान्तिदायो उपदेश देना शुरू किया । ये भिक्षु ही देवप्रिय सम्राट अशोकके गुरु हुए ।
बाहुबलि सम्राट् भरतको दिग्विजयमें सिर्फ़ इतनी कमी रह गई थी कि उनके छोटे भाई पोदनपुर-नरेश बाहुबलिने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की
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सन्त-विनोद