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तक अमुक भावमें इतना जवाहरात वह व्यापारी देगा । जिसकी लिखापढ़ी भी हो गई।
संयोगकी बात, जवाहरातके मुल्य इतने बढ़ गये कि अगर वह व्यापारी वायदेके मुताबिक़ अदायगी करे तो उसका घर तक नीलाम हो जाय।
रायचन्द भाईको जवाहरातके बाजार-भावका पता चला तो वे उस व्यापारीकी दूकानपर पहुंचे। व्यापारी बोला- 'मैं आपके सौदेके लिए खुद चिन्तित हूँ। चाहे जो हो, घाटेके रुपये आपको ज़रूर दूंगा, आप चिन्ता न करें।
रायचन्द भाई बोले-'मैं चिन्ता कैसे न करूं ? जब तुमको चिन्ता लग गई है तो मुझे भी चिन्ता होनी ही चाहिए। हम दोनोंकी चिन्ताका कारण यह लिखा-पढ़ी है। इसे खत्म कर दिया जाय तो दोनोंकी चिन्ता मिट जाय।'
व्यापारी बोला-'ऐसा नहीं। आप मुझे दो दिनका समय दें, मैं रुपये चुका दूंगा।'
रायचन्द भाईने लिखा-पढ़ीके काग़जको टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा-'इस लिखा-पढ़ीसे तुम बँध गये थे। बाज़ार-भाव बढ़नेसे मेरा चालीस-पचास हजार रुपया तुमपर लेना हो गया। लेकिन मैं तुम्हारी हालत जानता हूँ। ये रुपये मैं तुमसे लूँ तो तुम्हारी क्या दशा होगी ? रायचन्द दूध पी सकता है, खून नहीं पी सकता।'
व्यापारी कृतज्ञतासे रायचन्द भाईके पैरोंपर गिर पड़ा।
क्षमा-दान स्वामी उग्रानन्दजी बड़े सहिष्णु और सबमें भगवान्को देखनेवाले थे। एकबार वे किसी गाँवके बाहर एक पेड़के नीचे ब्रह्मानन्दकी मस्तीमें पड़े
सन्त-विनोद
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