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अध्याय -3
द्रव्यकर्म और भावकर्म का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध -
एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु। परिणमदे अट्टविहं णाणावरणादि-भावहिं॥
(3-67-135)
तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं॥
(3-68-136)
इन मिथ्यात्व आदि उदयों के हेतुभूत होने पर कार्मण वर्गणाओं के रूप में आया हुआ जो पुद्गल द्रव्य है, वह ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्म के रूप में आठ प्रकार परिणमन करता है। वह कार्मणवर्गणागत पुद्गल द्रव्य जब वास्तव में जीव के साथ बँधता है, उस काल में जीव अपने अज्ञानमय परिणाामरूप भावों का कारण होता है।
As a consequence of the rise of wrong belief (mithyātva) etc., the material substance that comes in the form of primary karmic matter gets modified into eight kinds of karmic matter like the knowledge-obscuring karma. The time when this primary karmic matter gets attached to the soul, during that period, the Self is the causal agent of his own ignorant dispositions.
जीव का परिणाम पुद्गल द्रव्य से भिन्न है -
जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा दु होंति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा॥ (3-69-137) एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं। ता कम्मोदयहेदूहि विणा जीवस्स परिणामो॥
(3-70-138)
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