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अध्याय -8
वह अभव्य जीव भोग के निमित्तभूत धर्म का ही श्रद्धान करता है, (उसी की) प्रतीति करता है, (उसी की) रुचि करता है तथा पुनः (उसी का) स्पर्श करता है, परन्तु कर्म-क्षय के निमित्तरूप (धर्म की श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्श) नहीं करता।
Such a person (incapable of attaining liberation), has faith in the dharma only to the extent of achieving worldly pleasures; he loves it, takes interest in it, and touches it. But for the dharma that is instrumental in dissociation of karmas, he does not have faith, love, interest or tactile-feeling.
व्यवहार और निश्चय का स्वरूप -
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं। छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो॥
(8-40-276)
आदा हु मज्झ णाणं आदा मे दसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो॥
(8-41-277)
आचारांग आदि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि तत्त्व दर्शन जानना चाहिये और छह जीवनिकाय चारित्र है - इस प्रकार तो व्यवहारनय कहता है। निश्चय से मेरी आत्मा ही ज्ञान है, मेरी आत्मा ही दर्शन और चारित्र है, मेरी आत्मा ही प्रत्याख्यान है और मेरी आत्मा ही संवर और योग है (यह निश्चयनय का कथन
है)।
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