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अध्याय -6
शुद्धात्मा के अनुभव से संवर होता है -
सुद्धं तु वियाणंतो विसुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो। जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि॥
(6-6-186)
शुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है।
The Self who knows the pure nature of the soul, dwells in the pure nature of the soul, but the Self who knows the impure nature of the soul, dwells in the impure nature of the soul.
संवर की विधि -
अप्पाणमप्पणा रुंधिदूण दोपुण्णपावजोगेसु। दसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि॥ (6-7-187)
जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणा अप्पा। ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं॥
(6-8-188)
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमइओ अणण्णमओ। लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्क॥ (6-9-189)
आत्मा को अपनी आत्मा के द्वारा पुण्य और पाप इन दोनों शुभाशुभ योगों से रोककर दर्शन और ज्ञान में स्थित हुआ और अन्य देह-रागादि में इच्छा से विरत हुआ तथा
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