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अध्याय -5
संता दुणिरुवभाज्जा बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स। बंधदि ते उवभोज्ने तरुणी इत्थी जह णरस्स॥ (5-11-174) होदूण णिरुवभोज्जातह बंधदि जह हंवति उवभोज्जा। सत्तट्टविहा भूदा णाणावरणादिभावहिं॥ (5-12-175) एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो। आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा॥ (5-13-176)
सम्यग्दृष्टि जीव के पूर्व की सराग दशा में बाँधे हुए सभी द्रव्यास्रव सत्ता में विद्यमान हैं। वे उपयोग के प्रयोगानुसार कर्म भाव के द्वारा (रागादि भाव प्रत्ययों के द्वारा) बन्ध को प्राप्त होते हैं। सत्ता में विद्यमान रहते हैं फिर भी उदय से पूर्व वे भोगने योग्य नहीं होते। जैसे बाल स्त्री पुरुष के लिए भोग्य नहीं होती। वे ही कर्म उदयकाल में भोगने योग्य होने पर नये कर्मों को बाँधते हैं; जिस प्रकार तरुणी स्त्री पुरुष के लिए (भोग्य होती है और पुरुष को रागभाव में बाँध लेती है)। वे पूर्वबद्ध कर्म भोगने के अयोग्य होकर जैसे भोगने योग्य होते हैं, उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि रूप से (आयु कर्म के बिना) सात प्रकार के और (आयु कर्म सहित) आठ प्रकार के कर्मों को बाँधते हैं। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक (कर्म-बन्ध न करने वाला) कहा गया है। रागादि भावास्रव के अभाव में द्रव्य प्रत्यय बन्धकारक नहीं होते हैं।
In the right believer, all previously bonded karmas, which got bonded when the Self was in the state of attachment, remain existent. They get bonded due to the manifestation of conscious dispositions of the Self, involving attachment etc. They are existent but are not fit for enjoyment till they mature; just as a child-wife is not fit for enjoyment by the husband. The same bonded karmas, when they mature, are fit for enjoyment and, in
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