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उत्तराध्ययन-२१/७८३
[७८३] दीक्षित होने पर मुनि महा क्लेशकारी, महामोह और पूर्ण भयकारी संग का परित्याग करके पर्यायधर्म में, व्रत में, शील में और परीषहों में अभिरुचि रखे ।
[७८४] विद्वान् मुनि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों को स्वीकार करके जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे ।।
[७८५] इन्द्रियों का सम्यक् संवरण करने वाला भिक्षु सब जीवों के प्रति करुणाशील रहे, क्षमा से दुर्वचनादि को सहे संयत हो, ब्रह्मचारी हो । सदैव सावद्ययोग का परित्याग करता हुआ विचरे ।
[७८६] साधु समयानुसार अपने बलाबल को, जानकर राष्ट्रों में विचरण करे । सिंह की भाँति भयोत्पादक शब्द सुनकर भी संत्रस्त न हो । असभ्य वचन सुनकर भी बदले में असभ्य वचन न कहे ।।
[७८७] संयमी प्रतिकूलताओं की उपेक्षा करता हुआ विचरण करे । प्रिय-अप्रिय परीषहों को सहन करे । सर्वत्र सबकी अभिलाषा न करे, पूजा और गर्दा भी न चाहे ।
[७८८] यहाँ संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं । भिक्षु उन्हें अपने में भी भाव से जानता है । अतः वह देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यंचकृत भयोत्पादक भीषण उपसर्गों को सहन करे ।
[७८९-७९१] अनेक असह्य परीषह प्राप्त होने पर बहुत से कायर लोग खेद का अनुभव करते हैं । किन्तु भिक्षु परिषह प्राप्त होने पर संग्राम में आगे रहने वाले हाथी की तरह व्यथित न हो | शीत, उष्ण, डाँस, मच्छर, तृण-स्पर्श तथा अन्य विविध प्रकार के आतंक जब भिक्षु को स्पर्श करें, तब वह कुत्सित शब्द न करते हुए उन्हें समभाव से सहे । पूर्वकृत कर्मों को क्षीण करे । विचक्षण भिक्षु सतत राग-द्वेष और मोह को छोड़कर, वायु से अकम्पित मेरु की भाँति आत्म-गुप्त बनकर परीषहों को सहे ।
[७९२] पूजा-प्रतिष्ठा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने वाला महर्षि पूजा और गर्दा में लिप्त न हो । वह समभावी विरत संयमी सरलता को स्वीकार करके निर्वाण-मार्ग को प्राप्त होता है ।
[७९३] जो अरति और रति को सहता है, संसारी जनों के परिचय से दूर रहता है, विरक्त है, आत्म-हित का साधक है, संयमशील है, शोक रहित है, ममत्त्व रहित है, अकिंचन है, वह परमार्थ पदों में स्थित होता है ।
[७९४] त्रायी, महान् यशस्वी ऋषियों द्वारा स्वीकृत, लेपादि कर्म से रहित, असंसृत से एकान्त स्थानों का सेवन करे और परीषहों को सहन करे ।
[७९५] अनुत्तर धर्म-संचय का आचरण करके सद्ज्ञान से ज्ञान को प्राप्त करनेवाला, अनुत्तर ज्ञानधारी, यशस्वी महर्षि, अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति धर्म-संघ में प्रकाशमान होता है।
[७९६] समुद्रपाल मुनि पुण्यपाप दोनों ही कर्मों का क्षय करके संयम में निश्चल और सब प्रकार से मुक्त होकर समुद्र की भाँति विशाल संसार-प्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए । - ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण