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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
निरीह पशु-पक्षियों की चिकित्सा कौन करता है ?" ।
[६९१-६९३] -"जैसे जंगल में मृग अकेला विचरता है, वैसे ही मैं भी संयम और तप के साथ एकाकी होकर धर्म का आचरण करूँगा ।" - "जब महावन में मृग के शरीर में आतंक उत्पन्न हो जाता है, तब वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है ?" - "कौन उसे औषधि देता है ? कौन उसे सुख की बात पूछता है ? कौन उसे भक्तपान लाकर देता है ?"
[६९४-६९५] “जब वह स्वस्थ हो जाता है, तब स्वयं गोचरभूमि में जाता है । और खाने-पीने के लिए बल्लरों व गहन तथा जलाशयों को खोजता है । उसमें खाकर-पानी पीकर मृगचर्या करता हुआ वह मृग अपनी मृगचर्या को चला जाता है ।"
[६९६] – “रूपादि में अप्रतिबद्ध, संयम के लिए उद्यत भिक्षु स्वतंत्र विहा करता हुआ, मृगचर्या की तरह आचरण कर मोक्ष को गमन करता है ।" ।
[६९७] --"जैसे मृग अकेला अनेक स्थानों में विचरता है, रहता है, सदैव गोचर-चर्या से ही जीवनयापन करता है, वैसे ही गौचरी के लिए गया हुआ मुनि भी किसी की निन्दा और अवज्ञा नहीं करता है ।"
[६९८] –“मैं मृगचर्या का आचरण करूँगा ।" “पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो-" इस प्रकार माता-पिता की अनुमति पाकर वह उपधि को छोड़ता है ।
[६९९] -“हे माता ! मैं तुम्हारी अनुमति प्राप्त कर सभी दुःखों का क्षय करनेवाली मृगचर्या का आचरण करूँगा" “पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे चलो ।"
[७००-७०१] इस प्रकार वह अनेक तरह से माता-पिता को अनुमति के लिए समझा कर ममत्त्व का त्याग करता है, जैसे कि महानाग कैंचुल को छोड़ता है । कपड़े पर लगी हुई धूल की तरह ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञाति जनों को झटककर वह संयमयात्रा के लिए निकल पड़ा ।
[७०२-७०७] पंच महाव्रतों से युक्त, पाँच समितियों से समित तीन गुप्तियों से गुप्त, आभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यत-ममत्त्वरहित, अहंकाररहित, संगरहित, गौरव का त्यागी, त्रस तथा स्थावर सभी जीवों में समदृष्टि-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण, निन्दा, प्रशंसा
और मान-अपमान में समत्त्व का साधक-गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बन्धन से मुक्त इस लोक और परलोक में अनासक्त, बसूले से काटने अथवा चन्दन लगाए जाने पर भी तथा आहार मिलने और न मिलने पर भी सम-अप्रशस्त द्वारों से आने वाले कर्म-पुद्गलों का सर्वतोभावेन निरोधक महर्षि मृगापुत्र अध्यात्मसम्बन्धी ध्यानयोगों से प्रशस्त संयम-शासन में लीन हुआ ।
[७०८-७०९] इस प्रकार ज्ञान, चारित्र, दर्शन, तप और शुद्ध-भावनाओं के द्वारा आत्मा को सम्यक्तया भावित कर बहत वर्षों तक श्रामण्य धर्म का पालन कर अन्त में एक मास के अनशन से वह अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त हुआ ।
[७१०] संबुद्ध, पण्डित और अतिविचक्षण व्यक्ति ऐसा ही करते हैं । वे काम-भोगों से वैसे ही निवृत्त होते हैं, जैसे कि महर्षि मृगापुत्र निवृत्त हुआ ।
[७११-७१२] महान् प्रभावशाली, यशस्वी मृगापुत्र के तपःप्रधान, त्रिलोक-विश्रुत