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उत्तराध्ययन-९/२६४
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जीत लिए जाते हैं ।"
[२६५-२६६] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा-“हे क्षत्रिय ! तुम विपुल यज्ञ कराकर, श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दान देकर, भोग भोगकर और स्वयं यज्ञ कर के फिर जाना ।"
[२६७-२६८] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्पि ने कहा"जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान करता है, उसको भी संयम ही श्रेय है । फिर भले ही वह किसी को कुछ भी दान न करे ।"
[२६९-२७०] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा-'हे मनुजाधिप ! तुम गृहस्थ आश्रम को छोड़कर जो दूसरे संन्यास आश्रम की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं है । गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए पौषधव्रत में अनुरत रहो ।"
[२७१-२७२] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा“जो बाल साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा में कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी पा नहीं सकता है ।"
[२७३-२७४] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा-“हे क्षत्रिय ! तुम चांदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के पात्र, वस्त्र, वाहन और कोश की वृद्धि करके फिर मुनि बनना ।"
[२७५-२७७] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा"सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हों, फिर भी लोभी मनुष्य की उनसे कुछ भी तृप्ति नहीं होती । क्योंकि इच्छा आकाश समान अनन्त है ।" "पृथ्वी, चावल, जो, सोना और पशु की इच्छापूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है-" यह जान कर साधक तप का आचरण करे ।" .
[२७८-२७९] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने कहा-“हे पार्थिव ! आश्चर्य है, तुम प्रत्यक्ष में प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा कर रहे हो । मालूम होता है, तुम व्यर्थ के संकल्पों से ठगे जा रहे हो ।'
[२८०-२८२] इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने कहा“संसार के काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं । जो काम-भोगों को चाहते हैं, किन्तु उनका सेवन नहीं कर पाते हैं, वे भी दुर्गति में जाते हैं । क्रोध से अधोगति में जाना होता है । मान से अधमगति होती है । माया से सुगति में बाधाएँ आती हैं । लोभ से दोनों तरह का भय होता है ।"
[२८३-२८८] देवेन्द्र ब्राह्मण का रूप छोड़कर, अपने वास्तविक इन्द्रस्वरूप को प्रकट करके मधुर वाणी से स्तुति करता हुआ नमि राजर्षि को वन्दना करता है : “अहो, आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता । मान को पराजित किया । माया को निराकृत किया । लोभ को वश में किया । अहो ! उत्तम है तुम्हारी सरलता । उत्तम है तुम्हारी मृदुता । उत्तम है तुम्हारी क्षमा । अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता । भगवन् ! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे । कर्म-मल से रहित होकर आप लोक में सर्वोत्तम स्थान सिद्धि को