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________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद और यह रति सुख है-'' “वर्तमान के ये कामभोग-सम्बन्धी सुख तो हस्तगत हैं । भविष्य में मिलने वाले सुख संदिग्ध हैं । कौन जानता है-परलोक है या नहीं-" [१३५-१४०] "मैं तो आम लोगों के साथ रहूँगा । ऐसा मानकर अज्ञानी मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है । किन्तु वह कामभोग के अनुराग से कष्ट ही पाता है । फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है । प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन ही प्राणीसमूह की हिंसा करता है । जो हिंसक, बाल-अज्ञानी, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर तथा शठ होता है वह मद्य एवं मांस का सेवन करता हुआ यह मानता है कि यही श्रेय है । वह शरीर और वाणी से मत्त होता होता है, धन और स्त्रियों में आसक्त रहता है । वह राग और द्वेष दोनों से वैसे ही कर्म-मल संचय करता है, जैसे कि शिशुनाग अपने मुख और शरीर दोनों से मिट्टी संचय करता हैं । फिर वह भोगासक्त बालजीव आतंकरोग से आक्रान्त होने पर ग्लान होता है, परिताप करता है, अपने किए हुए कर्मों को यादकर परलोक से भयभीत होता है । वह सोचता है, मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जो शील से रहित क्रूर कर्मवाले अज्ञानी जीवों की गति है, और जहाँ तीव्र वेदना है । [१४१-१४३] उन नरकों में औपपातिक स्थिति है | आयुष्य क्षीण होने के पश्चात् अपने कृतकर्मों के अनुसार वहां जाता हुआ प्राणी परिताप करता है । जैसे कोई गाड़ीवान् समतल महान् मार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और तब गाड़ी की धुरो टूट जाने पर शोक करता है । इसी प्रकार जो धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ बालजीव शोक करता है, जैसे कि धुरी के टूटने पर गाड़ीवान् शोक करता है । [१४४-१४५] मृत्यु के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त होता है । एक ही दाव में सब कुछ हार जानेवाले धूर्त की तरह शोक करता हआ अकाम मरण से मरता है। यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण का प्रतिपादन किया है । अब पण्डितों के सकाम मरण को मुझसे सुनो [१४६-१४७] जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है कि संयत और जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं का मरण अतिप्रसन्न और आधातरहित होता है । यह सकाम मरण न सभी भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । गृहस्थ नाना प्रकार के शीलों से सम्पन्न होते हैं, जब कि बहुत से भिक्षु भी विषम-शीलवाले होते हैं । [१४८] कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा गृहस्थ संयम में श्रेष्ठ होते हैं । किन्तु शुद्धाचारी साधुजन सभी गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ हैं । [१४९-१५०] दुराचारी साधु को वस्त्र, अजिन, नग्नत्व, जटा, गुदड़ी, शिरोमुंडन आदि बाह्याचार, नरकगति में जाने से नहीं बचा सकते । भिक्षावृत्ति से निर्वाह करनेवाला भी यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता है । भिक्षु हो अथवा गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है, तो स्वर्ग में जाता है । [१५१-१५२] श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक साधना के सभी अंगों का काया से स्पर्श करे, कृष्ण और शुक्ल पक्षों में पौषध व्रत को एक रात्रि के लिए भी न छोड़े । इस प्रकार धर्मशिक्षा से सम्पन्न सुव्रती गृहवास में रहता हुआ भी मानवीय औदारिक शरीर को छोड़कर
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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