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________________ दशवैकालिक - चूलिका-१/-/५२१ ४९ [५२१] दुःख से युक्त और क्लेशमय मनोवृत्ति वाले इस जीव की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है, तो फिर हे जीव ! मेरा यह मनोदुःख तो है ही क्या ? [५२२] 'मेरा यह दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा, जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है । यदि वह इस शरीर से न मिटी, तो मेरे जीवन के अन्त में तो वह अवश्य मिट जाएगी । [ ५२३] जिसकी आत्मा इस प्रकार से निश्चित होती है वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को छोड़ नहीं सकता । ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ वायु सुदर्शन-गिरि को । [५२४] बुद्धिमान् मनुष्य इस प्रकार सम्यक् विचार कर तथा विविध प्रकार के लाभ और उनके उपायों को विशेष रूप से जान कर तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवचन का आश्रय ले । ऐसा मैं कहता हूँ । चूलिका- १ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण चूलिका-२-विविक्तचर्या [५२५] मैं उस चूलिका को कहूँगा, जो श्रुत है, केवली - भाषित है, जिसे सुन कर पुण्यशाली जीवों की धर्म में मति उत्पन्न होती है । [५२६-५२८] (नदी के जलप्रवाह में गिर कर समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत-से लोग अनुस्रोत संसार-समुद्र की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत होकर संयम के प्रवाह में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की ओर ले जाना चाहिए । अनुस्रोत संसार है और प्रतिस्रोत उसका उत्तार है । साधारण संसारीजन को अनुस्रोत चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु सुविहित साधुओं के लिए आश्रव प्रतिस्रोत होता है । इसलिए आचार ( - पालन) में पराक्रम करके तथा संवर मे प्रचुर समाधियुक्त हो कर, साधुओं को अपनी चर्या, गुणों तथा नियमों की ओर दृष्टिपात करना चाहिए । [५२९] अनियतवास, समुदान-चर्या, अज्ञातकुलों से भिक्षा ग्रहण, एकान्त स्थान में निवास, अल्प-उपधि और कलह-विवर्जन; यह विहारचर्या ऋषियों के लिए प्रशस्त है । [ ५३०] आकीर्ण और अवमान नामक भोज का विवर्जन एवं प्रायः दृष्टस्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण, ( ऋषियों के लिए प्रशस्त है ।) भिक्षु संसृष्टकल्प से ही भिक्षाचर्या करें । [५३१] साधु मद्य और मांस का अभोजी हो, अमत्सरी हो, बार-बार विगयों को सेवन न करनेवाला हो, बार-बार कायोत्सर्ग करनेवाला और स्वाध्याय के योगो में प्रयत्नशील हो । [५३२] यह शयन, आसन, शय्या, निषद्या तथा भक्त-पान आदि ( जब मैं लौट कर आऊँ, तब मुझे ही देना ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए । किसी ग्राम, नगर, कुल, देश पर या किसी भी स्थान पर ममत्वभाव न करे । [ ५३३] मुनि गृहस्थ का वैयावृत्य न करे गृहस्थ का अभिवादन, वन्दन और पूजन भी न करे । मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे, जिससे गुणों की हानि न हो । [ ५३४] कदाचित् गुणों में अधिक अथवा गुणों में समान निपुण सहायक साधु न 12 4
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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