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________________ दशवैकालिक-१०/-/४९७ ४७ क्षमाशील रहता है, निदान नहीं करता तथा कौतुक नहीं करता, वही भिक्षु है । [४९८] जो अपने शरीर से परीषहों को जीत कर जातिपथ से अपना उद्धार कर लेता है, जन्ममरण को महाभय जान पर श्रमणवृत्ति के योग्य तपश्चर्या में रत रहता है, वही भिक्षु है । [४९९] जो हाथों, पैरों, वाणी और इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, जिसकी आत्मा सम्यक् रूप से समाधिस्थ है और जो सूत्र तथा अर्थ को विशेष रूप से जानता है; वह भिक्षु है । [५००] जो उपधि में मूर्च्छित नहीं है, अगृद्ध है, अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करता है, संयम को निस्सार कर देने वाले दोषों से रहित है; क्रय-विक्रय और सन्निधि से रहित है तथा सब संगों से मुक्त है, वही भिक्षु है । [५०१] जो भिक्षु लोलुपता-रहित है, रसों में गृद्ध नहीं है, अज्ञात कुलों में भिक्षाचरी करता है, असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, ऋद्धि, सत्कार और पूजा का त्याग करता है, जो स्थितात्मा है और छल से रहित है, वही भिक्षु है । [५०२] 'प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक् होते हैं,' ऐसा जानकर, जो दूसरों को (यह) नहीं कहता कि 'यह कुशील है ।' तथा दूसरा कुपित हो, ऐसी बात भी नहीं कहता और जो अपनी आत्मा को सर्वोत्कृष्ट मानकर अहंकार नहीं करता, वह भिक्षु है । [५०३] जो जाति, रूप, लाभ और श्रुत का मद नहीं करता है; उनको त्यागकर धर्मध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है । [५०४] जो महामुनि शुद्ध धर्म-का उपदेश करता है, स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरे को भी धर्म में स्थापित करता है, प्रव्रजित होकर कुशील को छोडता है तथा हास्योत्पादक कुतुहलपूर्ण चेष्टाएँ नहीं करता, वह भिक्षु है । [५०५] अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला पूर्वोक्त भिक्षु इस अशुचि और अशाश्वत देहवास को सदा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म-मरण के बन्धन को छेदन कर सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है । -ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (चूलिका-१-रतिवाक्य) [५०६] इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रव्रजित हुआ है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया । अतः वह संयम का परित्याग कर जाना चाहता है, किन्तु संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए । ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका समान हैं । जैसे-ओह ! दुष्षमा आरे में जीवन दुःखमय है । गृहस्थों के कामभोग असार एवं अल्पकालिक हैं । मनुष्य प्रायः कपटबहुल हैं । मेरा यह दुःख चिरकाल नहीं होगा । गृहवास में नीच जनों का पुरस्कार-सत्कार (करना पड़ेगा ।) पुनःगृहस्थवास में जाने का अर्थ है- वमन किए हुए का वापिस पीना । नीच गतियों में निवास को स्वीकार करना । अहो ! गृहवास में गृहस्थों के लिए शुद्ध धर्म निश्चय ही दुर्लभ है । वहाँ आतंक
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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