________________
४४
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
चर्या करता है, जो न मिलने पर विषाद नहीं करता और मिलने पर श्लाघा नहीं करता, वह पूजनीय है ।
[४६०] जो (साधु) संस्तारक, शय्या, आसन, भक्त और पानी का अतिलाभ होने पर भी अल्प इच्छा रखनेवाला है, इस प्रकार जो अपने को सन्तुष्ट रखता है तथा जो सन्तोषप्रधान जीवन में रत है, वह पूज्य है ।
[४६१] मनुष्य लाभ की आशा से लोहे के कांटों को उत्साहपूर्वक सहता है किन्तु जो किसी लाभ की आशा के बिना कानों में प्रविष्ट होने वाले तीक्ष्ण वचनमय कांटों को सहन करता है, वही पूज्य होता है ।
[४६२] लोहमय कांटे केवल मुहूर्तभर दुःखदायी होते हैं; फिर वे भी से सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं । किन्तु वाणी से निकले हुए दुर्वचनरूपी कांटे कठिनता से निकाले जा सकनेवाले, वैर परम्परा बढ़ानेवाले और महाभयकारी होते हैं ।
[४६३] आते हुए कटुवचनों के आघात कानों में पहुँचते ही दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं; (परन्तु) जो वीर-पुरुषों का परम अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष 'यह मेरा धर्म है' ऐसा मान कर सहन कर लेता है, वही पूज्य होता है ।
[४६४] जो मुनि पीठ पीछे कदापि किसी का अवर्णवाद नहीं बोलता तथा प्रत्यक्ष में विरोधी भाषा एवं निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह पूज्य होता है।
[४६५] जो लोलुप नहीं होता, इन्द्रजालिक चमत्कार-प्रदर्शन नहीं करता, माया का सेवन नहीं करता, चुगली नहीं खाता, दीनवृत्ति नहीं करता, दूसरों से अपनी प्रशंसा नहीं करवाता और न स्वयं अपनी प्रशंसा करता है तथा जो कुतूहल नहीं करता, वह पूज्य है ।
[४६६] व्यक्ति गुणों से साधु होता है, अगुणों से असाधु । इसलिए साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु-गुणों को छोड़ । आत्मा को आत्मा से जान कर जो रागद्वेष में सम रहता है, वही पूज्य होता है ।
[४६७] इसी प्रकार अल्पवयस्क या वृद्ध को, स्त्री या पुरुष को, अथवा प्रव्रजित अथवा गृहस्थ को उसके दुश्चरित की याद दिला कर जो साधक न तो उसकी हीलना करता है और न ही झिड़कता है तथा जो अहंकार और क्रोध का त्याग करता है, वही पूज्य होता है ।
[४६८] (अभ्युत्थान आदि द्वारा) सम्मानित किये गए आचार्य उन साधकों को सतत सम्मानित करते हैं, जैसे-(पिता अपनी कन्याओं को) यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करते हैं, वैसे ही (आचार्य अपने शिष्यों को सुपथ में) स्थापित करते हैं; उन सम्मानार्ह, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यपरायण आचार्यों का जो सम्मान करता है, वह पूज्य होता है ।
[४६९] जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित सुनकर, तदनुसार आचरण करता है; जो पंच महाव्रतों में रत, तीन गुप्तियों से गुप्त, चारों कषायों से रहित हो जाता है, वहपूज्य होता है ।
[४७०] जिन-(प्ररूपित) सिद्धान्त में निपुण, अभिगम में कुशल मुनि इस लोक में सतत गुरु की परिचर्या करके पूर्वकृत कर्म को क्षय कर भास्वर अतुल सिद्धि गति को प्राप्त करता है । -ऐसा मैं कहता हूँ ।