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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सहित आकर भोजन भूमि प्रतिलेखन कर ले । विनयपूर्वक गुरुदेव के समीप आए और ईपिथिक प्रतिक्रमण करे । जाने-आने में और भक्तपान लेने में (लगे) समस्त अतिचारों का क्रमशः उपयोगपूर्वक चिन्तन कर ऋजुप्रज्ञ और अनुद्विग्न संयमी अव्याक्षिप्त चित्त से गुरु के पास आलोचना करे और जिस प्रकार से भिक्षा ली हो, उसी प्रकार से गुरु से निवेदन करे । यदि आलोचना सम्यक् प्रकार से न हुई हो, अथवा जो पहले-पीछे की हो, तो उसका पुनः प्रतिक्रमण करे, कायोत्सर्गस्थ होकर यह चिन्तन करे-अहो ! जिनेन्द्र भगवन्तों ने साधुओं को मोक्षसाधना के हेतुभूत संयमी शरीर-धारण करने के लिए निरवद्य वृत्ति का उपदेश दिया है । नमस्कार-मन्त्र के द्वारा पूर्ण करके जिनसंस्तव करे, फिर स्वाध्याय का प्रारम्भ करे, क्षणभर विश्राम ले, कर्म-निर्जरा के लाभ का अभिलाषी मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे–“यदि कोई भी साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं संसार-समुद्र से पार हो जाऊँ ।
[१७०-१७४] वह प्रीतिभाव से साधुओं को यथाक्रम से निमंत्रण करे, यदि उन में से कोई भोजन करना चाहें तो उनके साथ भोजन करे । यदि कोई आहार लेना न चाहे, तो वह अकेला ही प्रकाशयुक्त पात्र में, नीचे न गिराता हुआ यतनापूर्वक भोजन करे । अन्य के लिए बना हुआ, विधि से उपलब्ध जो तिक्त, कडुआ, कसैला, अम्ल, मधुर या लवण हो, संयमी साधु उसे मधु-घृत की तरह सन्तोष के साथ खाए । मुधाजीवी भिक्षु प्राप्त किया हआ आहार अरस हो या सरस, व्यञ्जनादि युक्त हो अथवा रहित, आर्द्र हो, या शुष्क, बेर के चून का भोजन हो अथवा कुलथ या उड़द के बाकले का, उसकी अवहेलना न करे, किन्तु मुधाजीवी साधु, मुधालब्ध एवं प्रासुक आहार का, चाहे वह अल्प हो या बहुत; दोषों को छोड़ कर समभावपूर्वक सेवन करे ।
[१७५] मुधादायी दुर्लभ हैं और मुधाजीवी भी दुर्लभ हैं । मुधादायी और मुधाजीवी, दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-५-उद्देशक-२ | [१७६] सम्यक् यत्नवान् साधु लेपमात्र-पर्यन्त पात्र को अंगुलि से पोंछ कर सुगन्धयुक्त हो या दुर्गन्धयुक्त, सब खा ले ।
[१७७-१७८] उपाश्रय में या स्वाध्यायभूमि में बैठा हुआ, अथवा गौचरी के लिए गया हुआ मुनि अपर्याप्त खाद्य-पदार्थ खाकर यदि उस से निर्वाह न हो सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और इस उत्तर विधि से भक्त-पान की गवेषणा करे ।
[१७९-१८१] भिक्षु भिक्षा काल में निकले और समय पर ही वापस लौटे अकाल को वर्ज कर जो कार्य जिस समय उचित हो, उसे उसी समय करे । हे मुनि ! तुम अकाल में जाते हो, काल का प्रतिलेख नहीं करते । भिक्षा न मिलने पर तुम अपने को क्षुब्ध करते हो और सन्निवेश की निन्दा करते हो । भिक्षु समय होने पर भिक्षाटन और पुरुषार्थ करे । भिक्षा प्राप्त नहीं हुई, इसका शोक न करे किन्तु तप हो गया, ऐसा विचार कर क्षुधा परीषह सहन करे ।
[१८२] इसी प्रकार भोजनार्थ एकत्रित हुए नाना प्रकार के प्राणी दीखें तो वह उनके सम्मुख न जाए, किन्तु यतनापूर्वक गमन करे ।