________________
२००
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
विपाद की उत्पत्ति अद्भुतरस का लक्षण है । इस जीवलोक में इससे अधिक अद्भुत और क्या हो सकता है कि जिनवचन द्वारा त्रिकाल संबन्धी समस्त पदार्थ जान लिये जाते हैं । [२२१-२२२] भयोत्पादक रूप, शब्द अथवा अंधकार के चिन्तन, कथा, दर्शन आदि से रौद्ररस उत्पन्न होता है और संमोह, संभ्रम, विषाद एवं मरण उसके लक्षण हैं । भृकृटियों से तेरा मुख विकराल बन गया है, तेरे दांत होठों को चबा रहे हैं, तेरा शरीर खून से लथपथ हो रहा है, तेरे मुख से भयानक शब्द निकल रहे हैं, जिससे तू राक्षस जैसा हो गया है और पशुओं की हत्या कर रहा है । इसलिए अतिशय रौद्ररूपधारी तू साक्षात रौद्ररस है ।
[२२३-२२४] विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनयन करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से व्रीडनकरस उत्पन्न होता है । लज्जा और शंका उत्पन्न होना, इस रस के लक्षण हैं । इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद अन्य बात क्या हो सकती है - मैं तो इससे बहुत लजाती हूँ कि वर-वधू का प्रथम समागम होने पर सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं । [२२५-२२६] अशुचि, शव, मृत शरीर, दुर्दर्शन, को बारंबार देखने रूप अभ्यास से या उसकी गंध से बीभत्सरस उत्पन्न होता है । निर्वेद और अविहिंसा बीभत्सरस के लक्षण हैं । अपवित्र मल से भरे हुए झरनों से व्याप्त और सदा सर्वकाल स्वभावतः दुर्गन्धयुक्त यह शरीर सर्व कलहों का मूल है । ऐसा जानकर जो व्यक्ति उसकी मूर्च्छा का त्याग करते हैं, वे धन्य हैं ।
[२२७-२२८] रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीतता से हास्यरस उत्पन्न होता है । हास्यरस मन को हर्षित करनेवाला है और प्रकाश -मुख, नेत्र आदि का विकसित होना, अट्टहास आदि उसके लक्षण हैं । प्रातः सोकर उठे, कालिमा से - काजल की रेखाओं से मंडित देवर के मुख को देखकर स्तनयुगल के भार से नमित मध्यभाग वाली कोई युवती ही - ही करती हँसती है ।
[२२९-२३०] प्रिय के वियोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात, पुत्रादि - मरण एवं संभ्रम-परचक्रादि के भय आदि से करुणरस उत्पन्न होता है । शोक, विलाप, अतिशय म्लानता, रुदन आदि करुणरस के लक्षण हैं । हे पुत्रिके ! प्रियतम के वियोग में उसकी वारंवार अतिशय चिन्ता से क्लान्त-मुर्झाया हुआ और आंसुओं से व्याप्त नेत्रोंवाला तेरा मुख दुर्बल हो गया है । [२३१-२३२] निर्दोष, मन की समाधि से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है तथा अविकार जिसका लक्षण है, उसे प्रशान्तरस जानना चाहिये । सद्भाव के कारण निर्विकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है ।
[२३३] गाथाओं द्वारा कहे गये ये नव काव्यरस अलीकता आदि सूत्र के बत्तीस दोषों से उत्पन्न होते हैं और ये रस कहीं शुद्ध भी होते हैं और कहीं मिश्रित भी होते हैं । [२३४] नवनाम का निरूपण पूर्ण हुआ ।
[२३५] दसनाम क्या है ? दस प्रकार के नाम दस नाम हैं । गौणनाम, नोगौणनाम, आदानपदनिष्पन्ननाम, प्रतिपक्षपदनिष्पन्ननाम, प्रधानपदनिष्पन्ननाम, अनादिसिद्धान्तनिष्पन्ननाम,