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नन्दीसूत्र-१४६
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लोक और परलोक की ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या और दीक्षापर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अन्तक्रिया-शैलेशी अवस्था आदि विषयों का वर्णन है । परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । यह आठवाँ अंग है । इसमें एक श्रुतस्कंध, आठ उद्देशनकाल और आठ समुद्देशन काल हैं । पद परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय तथा परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रज्ञप्त भाव हैं तथा प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन हैं । इस सूत्र का अध्ययन करनेवाला तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस तरह प्रस्तुत अङ्ग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है ।
[१४७] भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक-दशा सूत्र में क्या वर्णन है ? अनुत्तरौपपातिक दशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले आत्माओं के नगर, उद्यान, व्यन्तरायन, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, संयमपर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, प्रतिमाग्रहण, उपसर्ग, अंतिम संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन तथा अनुत्तर विमानों में उत्पत्ति । पुनः वहाँ से चवकर सुकुल की प्राप्ति, फिर बोधिलाभ और अन्तक्रिया इत्यादि का वर्णन है । परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । यह नवमा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देशनकाल और तीन समुद्देशनकाल हैं । पदाग्र परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है । शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रणीत भाव हैं । प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं | इसका सम्यक् रूपेण अध्ययन करने वाला तद्प आत्मा, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार चरण-करण की प्ररूपणा उक्त अंग में की गई है ।
[१४८] प्रश्नव्याकरण किस प्रकार है ? प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्न हैं, १०८ अप्रश्न हैं, १०८ प्रश्नाप्रश्न हैं । अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न तथा आदर्शप्रश्न । इनके अतिरिक्त अन्य भी विचित्र विद्यातिशय कथन हैं । नागकुमारों और सुपर्णकुमारों के साथ हुए मुनियों के दिव्य संवाद भी हैं । परिमित वाचनाएँ हैं । संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात संग्रहणियाँ तथा प्रतिपत्तियाँ हैं । यह दसवां अंग है । इनमें एक श्रुतस्कंध, ४५ अध्ययन, ४५ उद्देशनकाल और ४५ समुद्देशनकाल हैं । पद परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं । संख्यात अक्षर, अनन्त अर्थगम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित, जिन प्रतिपादित भाव हैं, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन तथा उपदर्शन द्वारा स्पष्ट किए गये हैं । प्रश्नव्याकरण का पाठक तदात्मकरूप एवं ज्ञाता, विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार उक्त अंग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है ।
[१४९] भगवन् ! विपाकश्रुत किस प्रकार का है ? विपाकश्रुत में शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक हैं । उस विपाकश्रुत में दस दुःखविपाक और दस सुखविपाक अध्ययन हैं । दुःखविपाक में दुःखरूप फल भोगने वालों के नगर, उद्यान, वनखंड चैत्य, राजा, माता-पिता,