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नन्दीसूत्र-८२
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विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है । क्षेत्र से ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊँचे ज्योतिषचक्र के उपरितल को और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीप समुद्र पर्यंत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है । और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और तिमिरहित क्षेत्र को जानता व देखता है । काल से-ऋजुमति जघन्य और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग भूत
और भविष्यत् काल को जानता व देखता है । उसी काल को विपुलमति उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और वितिमिर जानता व देखता है । भाव से-ऋजुमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता व देखता है । उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है ।
[८३] मनःपर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिन्तित अर्थ को प्रगट करनेवाला है । शान्ति, संयम आदि गुण इस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं और यह चारित्रसम्पन्न अप्रमत्तसंयत को ही होता है ।
[८४] यह हुआ मनःपर्यवज्ञान का कथन ।
[८५] भगवन् ! केवलज्ञान का स्वरूप क्या है ? गौतम ! केवलज्ञान दो प्रकार का है, भवस्थ-केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान । भवस्थ-केवलज्ञान दो प्रकार का है । यथासयोगिभवस्थ-केवलज्ञान एवं अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । गौतम ! सयोगिभवस्थ-केवलज्ञान भी दो प्रकार का है, प्रथमसमय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान । इसे अन्य दो प्रकार से भी बताया है । चरमसमय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अचरम समय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञानअयोगिभवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का है । उसे सयोगिभवस्थ के समान जान लेना ।
[८६] सिद्ध केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का है, अनंतरसिद्ध केवलज्ञान और परंपरसिद्ध केवलज्ञान ।
[८७] अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान १५ प्रकार से वर्णित है । यथा-तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थंकरसिद्ध, अतीर्थंकरसिद्ध, स्वयंबुद्ध सिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध, नपुंसकलिंगसिद्ध, स्वलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गृहिलिंगसिद्ध, एकसिद्ध और अनेकसिद्ध ।
[८८] वह परम्परसिद्ध-केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? अनेक प्रकार से है । यथाअप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत् दससमयसिद्ध, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध । इस प्रकार परम्परसिद्ध केवलज्ञान का वर्णन है ।
[८९] संक्षेप में वह चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । केवलज्ञानी द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से सर्व लोकालोक क्षेत्र को, काल से भूत, वर्तमान
और भविष्यत् तीनों कालों को और भाव से सर्व द्रव्यों के सर्व भावों-पर्यायों को जानता व देखता है ।
[९०] केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों को, उत्पाद आदि परिणामों को तथा भाव-सत्ता को