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________________ १५२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पूलिका अथवा जलते हुए काष्ठ, मणि, प्रदीप या किसी पात्र में प्रज्वलित अग्नि रखकर हाथ अथवा दण्ड से उसे आगे करके क्रमशः आगे चलता है और मार्ग में स्थित वस्तुओं को देखता जाता है । इसी प्रकार पुरतःअन्तगत अवधिज्ञान भी आगे के प्रदेश में प्रकाश करता हुआ साथ-साथ चलता है । मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? जैसे कोई व्यक्ति उल्का, तृणपूलिका, अग्रभग से जलते हुए काष्ठ यावत् दण्ड द्वारा पीछे करके उक्त वस्तुओं के प्रकाश से पीछे-स्थित पदार्थों को देखता हुआ चलता है, उसी प्रकार जो ज्ञान पीछे के प्रदेश को प्रकाशित करता है वह मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान है । पार्श्व से अन्तगत अवधिज्ञान किसे कहते हैं ? जैसे कोई पुरुष दीपिका, चटुली, अग्रभाग से जलते हुए काठ को, मणि, प्रदीप या अग्नि को पार्श्वभाग से परिकर्षण करते हुए चलता है, इसी प्रकार यह अवधिज्ञान पार्श्ववर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता हुआ आत्मा के साथ-साथ चलता है । यह अन्तगत अवधिज्ञान का कथन हुआ । भगवन् ! मध्यगत अवधिज्ञान कौन सा है ? भद्र ! जैसे कोई पुरुष उल्का, तृणों की पूलिका, यावत् शरावादि में रखी हुई अग्नि को मस्तक पर रखकर चलता है । इसी प्रकार चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए जो ज्ञान ज्ञाता के साथ चलता है वह मध्यगत अवधिज्ञान है । ___ अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान में क्या अन्तर है ? पुरतः अवधिज्ञान से ज्ञाता सामने संख्यात अथवा असंख्यात योजनों में स्थित रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है । मार्ग से-पीछे से अन्तगत अवधिज्ञान द्वारा पीछे से तथा पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान से पार्श्व में स्थित द्रव्यों को संख्यात अथवा असंख्यात योजनों तक जानता व से देखता है । यह आनुगामिक अवधिज्ञान हुआ । [६३] भगवन् ! अनानुगामिक अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? जैसे कोई भी व्यक्ति एक बहत बड़ा अग्नि का स्थान बनाकर उसमें अग्नि को प्रज्वलित करके उस अग्नि के चारों ओर सभी दिशाविदिशाओं में घूमता है तथा उस ज्योति से प्रकाशित क्षेत्र को ही देखता है, अन्यत्र न जानता है और न देखता है । इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र में स्थित होकर संख्यात एवं असंख्यात योजन तक, स्वावगाढ क्षेत्र से सम्बन्धित तथा असम्बधित द्रव्यों को जानता व देखता है । अन्यत्र जाने पर नहीं देखता । [६४] -गुरुदेव ! वर्द्धमान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? अध्यवसायस्थानों या विचारों के विशुद्ध एवं प्रशस्त होने पर और चारित्र की वृद्धि होने पर तथा विशुद्धमान चारित्र के द्वारा मल-कलङ्क से रहित होने पर आत्मा का ज्ञान दिशाओं एवं विदिशाओं में चारों ओर बढ़ता है उसे वर्द्धमान अवधिज्ञान कहते हैं । [६५] तीन समय के आहारक सूक्ष्म-निगोद के जीव की जितनी जघन्य अवगाहना होती है-उतने परिमाण में जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र है । [६६] समस्त सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त अग्निकाय के सर्वाधिक जीव सर्वदिशाओं में निरन्तर जितना क्षेत्र परिपूर्ण करें, उतना ही क्षेत्र परमावधिज्ञान का निर्दिष्ट किया गया है । [६७] क्षेत्र और काल के आश्रित-अवधिज्ञानी यदि क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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