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________________ नदीसूत्र - १७ एवं शील रूपी सौरभ से परिव्याप्त संतोपरूपी मनोहर नन्दनवन है । संघ-सुमेरु में जीव दया ही सुन्दर कन्दराएँ हैं । वे कन्दराएँ कर्मशत्रुओं को पराजित करने वाले तेजस्वी मुनिगण रूपी सिंहों से आकीर्ण हैं और कुबुद्धि के निरास से सैंकड़ों हेतु रूप धातुओं से संघ रूप सुमेरु भास्वर है तथा व्याख्यान - शाला रूप कन्दराएँ देदीप्यमान हो रही हैं । संघ - मेरु में संवर रूप जल के सतत प्रवहमान झरने ही शोभायमान हार हैं । तथा संघ- सुमेरु के श्रावकजन रूपी मयूरों के द्वारा आनन्द-विभोर मधुर ध्वनि से कंदरा रूप प्रवचनस्थल मुखरित हैं । विनय गुण से विनम्र उत्तम मुनिजन रूप विद्युत् की चमक से संघ - मेरु के शिखर सुशोभित हो रहे हैं । गुणों से सम्पन्न मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, जो धर्म रूप फलों और ऋद्धि-रूप फूलों से युक्त हैं । ऐसे मुनिवरों से गच्छ-रूप वन परिव्याप्त हैं । मेरु पर्वत समान संघ की सम्यक्ज्ञान रूप श्रेष्ठ रत्न हो देदीप्यमान, मनोज्ञ, विमल वैडूर्यमयी चूलिका है । उस संघ रूप महामेरु गिरि के माहात्म्य को मैं विनयपूर्वक नम्रता के साथ वन्दना करता हूँ । I १४९ [१८-१९] ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्द्धमान को वन्दन करता हूँ । [२०-२१] श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर हुए हैं, इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डितपुत्र, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास । [२२] निर्वाण पथ का प्रदर्शक, सर्व भावों का प्ररूपक, कुदर्शनों के अहंकार का मर्दक जिनेन्द्र भगवान् का शासन सदा जयवन्त है । [२३] भगवान् महावीर के पट्टधर शिष्य अग्निवेश्यायन गोत्रीय श्रीसुधर्मास्वामी काश्यपगोत्रीय श्रीजम्बूस्वामी, कात्यायनगोत्रीय श्रीप्रभव स्वामी तथा वत्सगोत्रीय श्री शय्यम्भवाचार्य को मैं वन्दना करता हूँ । [२४] तुंगिक गोत्रीय गोत्रीय यशोभद्र, माढरगोत्रीय भद्रबाहु तथा गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र वन्दन करता हूँ । [२५] एलापत्य गोत्रीय आचार्य महागिरि और सुहस्ती तथा कौशिक गोत्र वाले बहुल मुनि के समान वय वाले बलिस्सह को भी वन्दन करता हूँ । [२६] हारीत गोत्रीय स्वाति एवं श्यामार्य को तथा कौशिक गोत्रीय आर्य जीतधर शाण्डिल्य को वन्दन करता हूँ । [२७] तीनों दिशाओं में, समुद्र पर्यन्त, प्रसिद्ध कीर्तिवाले, विविध द्वीप समुद्रों में प्रामाणिकता प्राप्त, अक्षुब्ध समुद्र समान गंभीर आर्य समुद्र को वन्दन करता हूँ । [२८] अध्ययन-अध्यापन में रत क्रिया युक्त, ध्याता, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का उद्यत करने वाले तथा श्रुत-रूप सागर के पारगामी धीर आर्य मंगु को वन्दन करता हूँ । [२९] आर्य धर्म, भद्रगुप्त, तप नियमादि गुणों से सम्पन्न वज्रवत् सुदृढ आर्य वज्र को वन्दन करता हूँ । [३०] जिन्होंने स्वयं के एवं अन्य सभी संयमियों के चारित्र सर्वस्व की रक्षा की तथा जिन्होंने रत्नों की पेटी के समान अनुयोग की रक्षा की, उन क्षपण तपस्वीराज आर्यरक्षित को करता हूँ ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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