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उत्तराध्ययन-३६/१७२९
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का आचरण करता है । जो ज्ञान की, केवल-ज्ञानी की, धर्माचार्य की, संघ की तथा साधुओं की निन्दा करता है, वह मायावी किल्बिषिकी भावना का आचरण करता है । जो निरन्तर क्रोध को बढ़ाता रहता है और निमित्त विद्या का प्रयोग करता है, वह आसुरी भावना का आचरण करता है ।
[१७३०] जो शस्त्र से, विषभक्षण से, अथवा अग्नि में जलकर तथा पानी में डूबकर आत्महत्या करता है, जो साध्वाचार से विरुद्ध भाण्ड रखता है, वह अनेक जन्म-मरणों का बन्धन करता है ।
[१७३१] इस प्रकार भव्य-जीवों को अभिप्रेत छत्तीस उत्तराध्ययनों को–उत्तम अध्यायों को प्रकट कर बुद्ध, ज्ञातवंशीय, भगवान् महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
| ४३ | उत्तराध्ययन-मूलसूत्र-४-हिन्दी अनुवाद पूर्ण |