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उत्तराध्ययन- ३२/१३०८
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है । रस जिह्वा का ग्राह्य है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं ।
[१३०९ - १३१०] जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बांधा जाता है । जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है । इस में रस का कोई अपराध नहीं है ।
[१३११] जो मनोज्ञ रस में एकान्त आसक्त होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है । [१३१२] रस की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य माननेवाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है ।
[१३१३-१३१५] रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग- काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है । वह संतोष को प्राप्त नहीं होता । असन्तोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की वस्तुएँ चुराता है । रस और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है ।
[१३१६] झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप है । इस प्रकार रस में अतृप्त होकर चोरी करने वाला वह दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है ।
[१३१७] इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा जिसे पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता है, उस के उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है । [१३१८] इसी प्रकार जो रस के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय दुःख के कारण बनते हैं ।
[१३१९] रस में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे- जलाशय में कमल का पत्ता जल से ।
[१३२०-१३२१] काय का विषय स्पर्श है । जो स्पर्श राग में कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं । जो स्पर्श द्वेष का कारण होता है उसे अमनोज्ञ कहते हैं । काय स्पर्श का ग्राहक है, स्पर्श काय का ग्राह्य है । जो राग का कारण है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं ।
[१३२२-१३२३] जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे - वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भेंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है । जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है । इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं है । [१३२४] जो मनोहर स्पर्श में अत्यधिक आरक्त होता है और अमनोहर स्पर्श में द्वेष
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