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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
होते हैं ।
[११९५-११९६] वह तप दो प्रकार का है-बाह्य और आभ्यन्तर | बाह्य तप छह प्रकार का है | आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा है । अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, काय-क्लेश और संलीनता-यह बाह्य तप है ।
[११९७-११९९] अनशन तप के दो प्रकार हैं-इत्वरिक और मरणकाल । इत्वरिक सावकांक्ष होता है । मरणकाल निरखकांक्ष होता है । संक्षेप से इत्वरिक-तप छह प्रकार का हैश्रेणि, तप, प्रतर तप, धन-तप, वर्ग-तप-वर्ग-वर्ग तप और छठा प्रकीर्ण तप । इस प्रकार मनोवांछित नाना प्रकार के फल को देने वाला 'इत्वरिक' अनशन तप जानना ।
[१२००-१२०१] कायचेष्टा के आधार पर मरणकालसम्बन्धी अनशन के दो भेद हैंसविचार और अविचार अथवा मरणकाल अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म ये दो भेद हैं । अविचार अनशन के निहाँही और अनिर्हारी-ये दो भेद भी होते हैं । दोनों में आहार का त्याग होता है ।
[१२०२] संक्षेप में अवमौदर्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का है ।
[१२०३] जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम-से-कम एक सिक्थ तथा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना, द्रव्य से 'ऊणोदरी' तप है ।
[१२०४-१२०७] ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध-आश्रम-पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिबिर, सार्थ, संवर्त, कोट-पाडा, गली और घर-इन क्षेत्रों में तथा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में निर्धारित क्षेत्र-प्रमाण के अनुसार भिक्षा के लिए जाना, क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है । अथवा पेटा, अर्ध-पेटा, गोमूत्रिका, पतंग-वीथिका, शम्बूकावर्ता और आयतगत्वा-प्रत्यागता-यह छह प्रकार का क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है ।
[१२०८-१२०९] दिवस के चार प्रहर होते हैं । उन चार प्रहरों में भिक्षा का जो नियत समय है, तदनुसार भिक्षा के लिए जाना, यह काल से 'ऊणोदरी' तप है । अथवा कुछ भागन्यून तृतीय प्रहर में भिक्षा की एपणा करना, काल की अपेक्षा से 'ऊणोदरी' तप है ।
[१२१०-१२११] स्त्री अथवा पुरुप, अलंकृत अथवा अनलंकृत, विशिष्ट आयु और अमुक वर्ण के वस्त्र-अथवा अमुक विशिष्ट वर्ण एवं भाव से युक्त दाता से ही भिक्षा ग्रहण करना, अन्यथा नहीं इस प्रकार की चर्या वाले मुनि को भाव से 'ऊणोदरी' तप है ।।
[१२१२] द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो-जो पर्याय कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला 'पर्यवचरक' होता है ।
[१२१३] आठ प्रकार के गोचराग्र, सप्तविध एषणाएं और अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह-'भिक्षाचर्या' तप है ।
[१२१४] दूध, दही, घी आदि प्रणीत (पौष्टिक) पान, भोजन तथा रसों का त्याग, 'रसपरित्याग' तप है ।
[१२१५] आत्मा को सुखावह अर्थात् सुखकर वीरासनादि उग्र आसनों का अभ्यास, 'कायक्लेश' तप है ।