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________________ उत्तराध्ययन- २७/१०५९ १११ अध्ययन-२७ - खलुंकीय [१०५९] गर्ग कुल में उत्पन्न 'गार्ग्य' मुनि स्थविर, गणधर और विशारद थे, गुणों से युक्त थे । गणि-भाव में स्थित और समाधि में अपने को जोड़े हुए थे । I [१०६०] शकटादि वहान को ठीक तरह वहन करने वाला बैल जैसे कान्तार को सुखपूर्वक पार करता है, उसी तरह योग में संलग्न मुनि संसार को पार कर जाता है । [१०६१-१०६५] जो खलुंक बैलों को जीतता है, वह उन्हें मारता हुआ क्लेश पाता है, असमाधि का अनुभव करता है और अन्ततः उसका चाबुक भी टूट जाता है । वह क्षुब्ध हुआ वाहक किसी की पूँछ काट देता है, तो किसी को बार- बार बींधता है । और उन बैलों में से कोई एक समिला तोड़ देता है, तो दूसरा उन्मार्ग पर चल पड़ता है । कोई मार्ग के एक ओर पार्श्व में गिर पड़ता है, कोई बैठ जाता है, कोई लेट जाता है । कोई कूदता है, कोई उछलता है, तो कोई शठ तरुण गाय के पीछे भाग जाता है । कोई धूर्त बैल शिर को निढाल बनाकर भूमि पर गिर जाता है । कोई क्रोधित होकर प्रतिपथ में चला जाता है । कोई मृतक - सा पड़ा रहता है, तो कोई वेग से दौड़ने लगता है । कोई दुष्ट बैल रास को छिन्न-भिन्न कर देता है । दुर्दान्त होकर जुए को तोड़ देता है । और सूं सूं आवाज करके वाहन को छोड़कर भाग जाता है । [१०६६-१०६९] अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देते हैं, वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्म- यान में जोतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं । कोई ऋद्धि-का गौरव करता है, कोई रस का गौरव करता है, कोई सुख का गौरव करता है, तो कोई चिरकाल तक क्रोध करता है । कोई भिक्षाचरी में आलस्य करता है, कोई अपमान से डरता है, तो कोई स्तब्ध है । हेतु और कारणों से गुरु कभी किसी को अनुशासित करता है तो वह बीच में ही बोलने लगता है, आचार्य के वचन में दोष निकालता है । तथा बार-बार उनके वचनों के प्रतिकूल आचरण करता है । [१०७०-१०७१] भिक्षा लाने के समय कोई शिष्य गृहस्वामिनी के सम्बन्ध में कहता है - वह मुझे नहीं जानती है, वह मुझे नहीं देगी । मैं मानता हूँ वह घर से बाहर गई होगी, अतः इसके लिए कोई दूसरा साधु चला जाए । किसी प्रयोजनविशेष से भेजने पर वे विना कार्य किए लौट आते हैं और अपलाप करते हैं । इधर-उधर घूमते हैं । गुरु की आज्ञा को राजा के द्वारा ली जाने वाली वेष्टि की तरह मानकर मुख पर भृकुटि तान लेते हैं । [१०७२] जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही शिक्षित एवं दीक्षित किए गए, भक्त - पान से पोषित किए गएं कुशिष्य भी अन्यत्र चले जाते हैं । [१०७३-१०७४] इन से खिन्न होकर धर्मयान के सारथी आचार्य सोचते हैं- "मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ ? इनसे तो मेरी आत्मा अवसन्न ही होती है ।' जैसे गलिर्दभ होते हैं, वैसे ही ये मेरे शिष्य है ।" यह विचार कर गर्गाचार्य गलिगर्दभरूप शिष्यों को छोड़कर ता से तपसाधना में लग गए । [१०७५] वह मृदु और मार्दव से सम्पन्न, गम्भीर, सुसमाहित और शील-सम्पन्न महान् आत्मा गर्ग पृथ्वी पर विचरने लगे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
SR No.009790
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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