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उत्तराध्ययन- २६/१०२२
अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखन का पौरुषी समय होता है ।
[१०२३-१०२४] विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे । उन चारों भागों में उत्तर- गुणों की आराधना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे ।
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[१०२५-१०२६] जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है, तब वह 'प्रदोषकाल' होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाना चाहिए । वही नक्षत्र जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग में आता है, तब उसे 'वैरात्रिक काल' समझकर मुनि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो ।
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[१०२७-१०२८] दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में पात्रादि उपकरणों का प्रतिलेखन कर, गुरु को वन्दना कर, दुःख से मुक्त करने वाला स्वाध्याय करे । पौन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण किए बिना ही भाजन का प्रतिलेखन करे ।
[१०२९-१०३०] मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गोच्छग का प्रतिलेखन करे । अंगुलियों से गोच्छ को पकड़कर वस्त्र का प्रतिलेखन करे । सर्वप्रथम ऊकडू आसन से बैठे, फिर वस्त्र का ऊँचा रखे, स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसका प्रतिलेखन करे । दूसरे में वस्त्र को धीरे से झटकाए और तीसरे में वस्त्र का प्रमार्जन करे ।
[१०३१] प्रतिलेखन के समय वस्त्र या शरीर को न नचाए, न मोड़े, वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित न करे, वस्त्र का दिवार आदि से स्पर्श न होने दे । वस्त्र के छह पूर्व और नौ खोटक करे । जो कोई प्राणी हो, उसका विशोधन करे ।
[१०३२-१०३३] प्रतिलेखन के दोष - (१) आरभटा-निर्दिष्ट विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना, (२) सम्मर्दा - प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने हवा में हिलते रहें, (३) मोसली - प्रतिलेखन करते हुए वस्त्र को ऊपर-नीचे, इधर-उधर किसी अन्य वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करते रहना । ( ४ ) प्रस्फोटना - धूलिधूसरित वस्त्र को जोर से झटकना । (५) विक्षिप्ता - प्रतिलेखित वस्त्र को अप्रतिलेखित वस्त्रों में रख देना । (६) वेदिका - प्रतिलेखना करते हुए घुटनों के ऊपर-नीचे या दोनों भुजाओं के बीच घुटनों को रखना । (७) प्रशिथिल - वस्त्र को ढीला पकड़ना । (८) प्रलम्ब - वस्त्र को इस तरह पकड़ना कि उसके कोने नीचे लटकते रहें । (९) लोल - प्रतिलेख्यमान वस्त्र का भूमि से या हाथ से संघर्षण करना । (१०) एकामर्शा - वस्त्र को बीच में से पकड़ कर एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख जाना (११) अनेकरूपधूनना - वस्त्र को अनेक बार झटकना । ( १२ ) प्रमाणप्रमाद - प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण है, उसमें प्रमाद करना । (१३) गणनोपगणनाप्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शंका के कारण हाथ की अंगुलियों की पर्व रेखाओं से गिनती करना ।
[१०३४] प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है । उक्त तीन विकल्पों के आठ विकल्प होते हैं, उनमें प्रथम विकल्प ही शुद्ध है ।
[१०३५-१०३६] प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद