________________
उत्तराध्ययन-२५/९८५
१०७
वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८६] -"जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८७] - “जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८८-९८९] --"जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, “जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९९०] "जो रसादि में लोलुप नहीं है, निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, गृह-त्यागी है, अकिंचन है, गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९९१] -"उस दुःशील को पशुबंध के हेतु सर्व वेद और पाप-कर्मों से किए गए यज्ञ बचा नहीं सकते, क्योंकि कर्म बलवान् हैं ।"
[९९२-९९४] "केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओम् का जप करने से ब्राह्मण नहीं होता है, अरण्य में रहने से मुनि नहीं होता है, कुश का बना जीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता है ।" - "समभाव से श्रमण होता है । ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है । ज्ञान से मुनि होता है । तप से तपस्वी होता है ।" - "कर्म से ब्राह्मण होता है। कर्म से क्षत्रिय होता है । कर्म से वैश्य होता है । कर्म से ही शूद्र होता है ।"
[९९५] -“अर्हत ने इन तत्त्वों का प्ररूपण किया है । इनके द्वारा जो साधक स्नातक होता है, सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९९६] "इस प्रकार जो गुण-सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं ।"
[९९७] इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोप की वाणी को सम्यक्रूप से स्वीकार किया ।
[९९८-१०००] संतुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़कर कहा-"तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदेश दिया है ।" "तुम यज्ञों के यष्टा हो, वेदों को जाननेवाले विद्वान् हो, ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हो, धर्मों के पारगामी हो ।" - "अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हो । अतः भिक्षुश्रेष्ठ ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह करो ।"
[१००१]-"मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है । हे द्विज ! शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण कर । ताकि भय के आवर्तों वाले संसार सागर में तुझे भ्रमण न करना पड़े।"
[१००२] -“भोगों में कर्म का उपलेप होता है । अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है । भोगी संसार में भ्रमण करता है । अभोगी उससे विप्रमुक्त हो जाता है ।"
[१००३-१००४] - "एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फेंके गये। वे दोनों दिवार पर गिरे । जो गीला था, वह वहीं चिपक गया ।" - "इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और काम-भोगों में आसक्त है, वे विषयों में चिपक जाते हैं । विरक्त साधक सूखे गोले की भाँति नहीं लगते हैं ।"
[१००५] इस प्रकार विजयघोष, जयघोष अनगार के समीप, अनुत्तर धर्म को सुनकर