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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सब प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा ।"
[९२५-९२६] “गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह संदेह दूर किया । मेरा एक और भी संदेह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें ।" - "मुने ! शारीरिक
और मानसिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए तुम क्षेम, शिव और अनाबाध-कौन-सा स्थान मानते हो ?"
९२७] गणधर गौतम-“लोक के अग्र-भाग में एक ऐसा स्थान है, जहाँ जरा नहीं है, मृत्यु नहीं है, व्याधि और वेदना नहीं है । परन्तु वहाँ पहुँचना बहुत कठिन है ।"
[९२८-९३०] -“वह स्थान कौन सा है ।" केशी ने गौतम को कहा । गौतम ने कहा-"जिस स्थान को महर्षि प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है । क्षेम, शिव और अनाबाध है ।" - "भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्रभाग में शाश्वत रूप से अवस्थित है, जहाँ पहुँच पाना कठिन है ।"
[९३१] -“गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह भी दूर किया । हे संशयातीत ! सर्व श्रुत के महोदधि ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ।" ।
[९३२-९३३] इस प्रकार संशय के दूर होने पर घोर पराक्रमी केशीकुमार, महान् यशस्वी गौतम को वन्दना कर-प्रथम और अन्तिम जिनों के द्वारा उपदिष्ट एवं सुखावह पंचमहाव्रतरूप धर्म के मार्ग में भाव से प्रविष्ट हुए ।
[९३४-९३५] वहाँ तिन्दुक उद्यान में केशी और गौतम दोनों का जो यह सतत समागम हुआ, उसमें श्रुत तथा शील का उत्कर्ष और महान् तत्त्वों के अर्थों का विनिश्चय हुआ । समग्र सभा धर्मचर्या से संतुष्ट हुई । अतः सन्मार्ग में समुपस्थित उसने भगवान् केशी और गौतम की स्तुति की कि वे दोनों प्रसन्न रहें । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
( अध्ययन-२४-प्रवचनमाता ) [९३६-९३८] समिति और गुप्ति-रूप आठ प्रवचनमाताएँ हैं । समितियाँ पाँच हैं । गुप्तियाँ तीन हैं । ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान समिति और उच्चार समिति । मनो-गुप्ति, वचन गुप्ति और आठवीं प्रवचन माता काय-गुप्ति है । ये आठ समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं । इनमें जिनेन्द्र कथित द्वादशांग-रूप समग्र प्रवचन अन्तर्भूत है ।
[९३९-९४३] संयती साधक आलम्बन, काल, मार्ग और यतना-इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या समिति से विचरण करे । ईर्या समिति का आलम्बन-ज्ञान, दर्शन और चारित्र है । काल दिवस है । और मार्ग उत्पथ का वर्जन है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से यतना चार प्रकार की है । उसको मैं कहता हूँ । सुनो । द्रव्य से आँखों से देखे । क्षेत्र से युगमात्र भूमि को देखे । काल से जब तक चलता रहे तब तक देखे । भाव सेउपयोगपूर्वक गमन करे । इन्द्रियों के विषय और पाँच प्रकार के स्वाध्याय का कार्य छोड़कर मात्र गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख महत्त्व देकर उपयोगपूर्वक चले ।
[९४४-९४५] क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सतत उपयोगयुक्त रहे । प्रज्ञावान् संयती इन आठ स्थानों को छोड़कर यथासमय निरवद्य