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________________ ९४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद १४१४-१४१५] काफी कष्टकारी दुष्कर दुःख से करके सेवन किया जाए वैसा उग्र, ज्यादा उग्र, जिनेश्वर के बताए सकल कल्याण के कारणरूप उस तरह के तप को आदर से सेवन करूँगा कि जिससे खड़े-खड़े भी शरीर सूख जाए । [१४१६-१४१८] मन-वचन और काया दंड़ का निग्रह करके सज्जड़ आरम्भ और आश्रव के द्वार को रोककर अहंकार, ईर्ष्या, क्रोध का त्याग करके राग, द्वेष, मोह रहित संग रहित, परिग्रहरहित ममत्वभावरहित निरहंकारी शरीर पर भी निःस्पृहतावाला होकर मैं पाँच महाव्रत का पालन करूँगा । और यकीनन उसमें अतिचार न लगने दूंगा। [१४१९-१४२२] अहाहा, मुजे धिक्कार है । वाकई मैं अधन्य हैं । मैं पापी और पाप मतिवाला हूँ । पापकर्म करनेवाला पापिष्ठ हूँ । मैं अधमाधम महापापी हूँ । मैं कुशील, भ्रष्ट चारित्रवाला, भिल्ल और कसाइ की उपमा देने के लायक हूँ । मैं चंडाल, कृपारहित पापी क्रूर कर्म करनेवाला, निंद्य हूँ इस तरह का दुर्लभ चारित्र प्राप्त करके ज्ञानदर्शन चारित्र की विराधना करके फिर उसकी आलोचना. निन्दना. गर्हणा और प्रायश्चित न करूँ और सत्व रहित आराधना से शायद मैं मर जाऊँ तो यकीनन अनुत्तर महाभयानक संसार सागर में ऐसी गहराई में डूब जाऊँगा कि फिर करोड़ भव के बाद भी बाहर न नीकल शकुंगा ।। [१४२३-१४२५] तो जब तक बुढ़ापे से पीडा न पाऊँ और फिर मुजे कोइ व्याधि न हो, जब तक इन्द्रिय सलामत है । तब तक मैं धर्म का सेवन कर लूँ । पहले के लिए गए पापकर्म की निन्दा, गर्हा लम्बे अरसे तक करके उसे जलाकर राख कर दूँ । प्रायश्चित् का सेवन करके मैं कलंक रहित बनूँगा । हे गौतम ! निष्कलुष निष्कलंक ऐसे शुद्ध भाव वो नष्ट न हो उनसे पहले कैसा भी दुष्कर प्रायश्चित् मैं ग्रहण करूँगा । [१४२६-१४२९] इस प्रकार आलोचना प्रकट करके प्रायश्चित् का सेवन करके क्लेश और कर्ममल से सर्वथा मुक्त होकर शायद वो पल से या उस भव में मुक्ति न पाए तो नित्य उद्योतवाला स्वयं प्रकाशित देवदुंदुभि के मधुर शब्दवाले सेंकड़ो अप्सरा से युक्त ऐसे वैमानिक उत्तम देवलोक में जाते है । वहाँ से च्यवकर फिर से यहाँ आकर उत्तम कुल में उत्पन्न होकर कामभोग से ऊबकर वैराग पाकर तपस्या करके फिर पंड़ितमरण पाकर अनुत्तर विमान में निवास करके यहाँ आए हुए वो समग्र तीन लोक के बंधु समान धर्मतीर्थकर होते है । [१४३०] हे गौतम ! सुप्रशस्त ऐसे इस चौथे पद का नाम अक्षय सुख स्वरूप मोक्ष को देनेवाले भाव आलोचना है । इस अनुसार मैं कहता हूँ । [१४३१-१४३२] हे भगवंत ! इस तरह का उत्तम श्रेष्ठ, विशुद्ध पद पाकर जो किसी प्रमाद की वजह से बार-बार कोइ विषय में गलती करे, चूके या स्खलना पाए तो उसके लिए काफी विशुद्धि युक्त शुद्धि पद बताया है कि नहीं ? इस शंका का समाधान दो । [१४३३-१४३५] हे गौतम ! लम्बे अरसे तक पाप की निन्दा और गर्दा करके प्रायश्चित् का सेवन करके जो फिर अपने महाव्रत आदि की रक्षा न करे तो जैसे धोए हुए वस्त्र को सावधानी से रक्षण न करे तो उसमें दाग लगने के बराबर हो । या फिर वो जिसमें से सुगंध नीकल रही है ऐसे काफी विमल-निर्मल गंधोदक से पवित्र क्षीरसागर में स्नान करके अशुचि से भरे खड्डे में गिरे उसकी तरह बार-बार गलती करनेवाला समजना । सारे कर्म का क्षय करनेवाले इस तरह की शायद देवयोग से सामग्री मिल भी जाए लेकिन अशुभ कर्म को ऊखेड़ना काफी मुश्किल मानना ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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