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________________ महानिशीथ-७/-/१३९१ ९१ लायक, एक माता ने साथ में जन्म देकर जुड़वा पेदा हुए हो, मर्यादा बिना पाप करने के स्वभाववाले, पूरे जन्म में दुष्ट कार्य करनेवाले, जाति, रौद्र, प्रचंड़ आभिग्राहिक बड़े मिथ्यात्व दष्टि को अपनानेवाले होंगे । उसे किस तरह पहचाने ? उत्सूत्र उन्मार्ग प्रवर्तनेवाले उपदेश देनेवाले या अनुमति बतानेवाले हो वैसे निमित्त से वो पहचाने जाते है ।। [१३९२] हे भगवंत ! जो गणनायक आचार्य हो वो सहज भी आवश्यक में प्रमाद करते है क्या ? हे गौतम ! जो गणनायक है वो बिना कारण सहज एक पलभर भी प्रमाद करे उसे अवंदनीय समजना । जो काफी महान कारण आने के बावजूद एक पलभर भी अपने आवश्यक में प्रमाद नहीं करते वो वंदनीय, पूजनीय, दर्शनीय यावत् सिद्ध बुद्ध पर पाए हुए क्षीण हुए आँठ कर्ममलवाले कर्मरज रहित के समान बताना । बाकी का अधिकार काफी विस्तार से अपने स्थानक से कहलाएगा । [१३९३] इस अनुसार प्रायश्चित विधि श्रवण करके दीनता रहित मनवाला दोष का सेवन करने के उचित अनुष्ठान नहीं करता और जिस स्थान में जितनी शक्ति लगानी पड़े उतनी लगाता है । उसे आराधक आत्मा कहा है । [१३९४-१३९५] जल, अग्नि, दुष्ट फाड़ खानेवाले जंगली-प्राणी, चोर, राजा, साँप, योगिनी के भय, भूत, यक्ष, राक्षस, क्षुद्र, पिशाच मारी मरकी कंकास, क्लेश, विघ्न, रोध, आजीविका, अटवी, सागर के बीच में फँसना, कोइ दुष्ट चिन्तवन करे, अपसगुन आदि के भय के अवसर के वक्त इस विद्या का स्मरण करना । (यह विद्या मंत्र-अक्षर के रूप में है । मंत्राक्षर का अनुवाद नहीं होता । मूल मंत्राक्षर के लिए हमारा आगम सुत्ताणिभाग-३९ महानिसीह आगम पृ. १२० देखो) [१३९६] इस श्रेष्ठ विद्या से विधिवत् अपनी आत्मा को अच्छी तरह से अभिमंत्रित करके यह कहेंगे तो साँत अक्षर से एक मस्तक दो बाहू, कुक्षी, पाँव के तलवे-ऐसे-साँत स्थान में स्थापन करना वो इस प्रकार- ऊँ' मस्तके, 'कु'-दाए खंभे की ग्रीवा पर, 'रु' दाइ कुक्षी के लिए, 'कु'-दाँए पाँव के तलवे के लिए, ले-बाँये पाँव के तलवे के लिए, 'स्वा' बाँई कुक्षी के लिए, 'हा' बाँये खंभे की ग्रीवा के लिए स्थापित करना । [१३९७-१३९९] दुःस्वप्न, दुर्निमित्त, ग्रहपीड़ा, उपसर्ग, शत्रु या अनिष्ट के भय में, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बीजली, उल्कापात, वूरा पवन, अग्नि, महाजन का विरोध आदि जो कुछ भी इस लोक में होनेवाले भय हो वो सब इस विद्या के प्रभाव से नष्ट होते है । मंगल करनेवाला, पाप हरण करनेवाला. दुसरे सभी अक्षय सख देनेवाला ऐसा प्रायश्चित करने की ईच्छावाले शायद उस भव में सिद्धि न पाए तो भी वैमानिक उत्तम देवगति पाकर फिर सुकुल में पेदा होकर अचानक सम्यक्त्व पाकर सुख परम्परा महसूस करते हुए आँठ कर्म की बाँधी रज और मल से हमेशा के लिए मुक्त होते है और सिद्धि पाता है ।। [१४००] हे भगवंत ! केवल इतना ही प्रायश्चित् विधान है कि जिससे इसके अनुसार आदेश किया जाता है ? हे गौतम ! यह तो सामान्य से बारह महिने की हरएक रात-दिन के हरएक समय के प्राण को नष्ट करना तब से लेकर बालवृद्ध नवदीक्षित गणनायक रत्नाधिक आदि सहित मुनिगण और अप्रतिपादत ऐसे महा अवधि, मनःपर्यवज्ञानी, छमस्थ वीतराग ऐसे भिक्षुक को एकान्त अभ्युत्थान योग आवश्यक क्रिया के सम्बन्ध से इस सामान्य प्रायश्चित् का
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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