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________________ महानिशीथ-६/-/१३१० ७५ पर बैठे रहने के लिए शक्तिमान होते है । हे गौतम ! सचमुच मिच्छामि दुक्कड़म् भी इस तरह का देना हम नहीं कहते । दुसरा भी जो तुम कहते हो उसका उत्तर दूं । [१३११-१३१३] किसी मानव इस जन्म में समग्र उग्र संयम तप करने के लिए समर्थ न हो शके तो भी सद्गति पाने की अभिलाषावाला है । पंछी के दूध का, एक केश ऊखेड़ने का, रजोहरण की एक दशी धारण करना, वैसे नियम धारण करना, लेकिन इतने नियम भी जावज्जीव तक पालन के लिए समर्थ नहीं, तो हे गौतम ! उसके लिए तुम्हारी बुद्धि से सिद्धि का क्षेत्र इसके अलावा किसी दुसरा होगा? [१३१४-१३१७] फिर से तुम्हे यह पूछे गए सवाल का प्रत्युत्तर देता हूँ कि चार ज्ञान के स्वामी, देव-असुर और जगत के जीव से पूजनीय निश्चित् उस भव में ही मुक्ति पानेवाले है । आगे दुसरा भव नहीं होगा । तो भी अपना बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम छिपाए बिना उग्र कष्टमय घोर दुष्कर तप का वो सेवन करते है । तो फिर चार गति स्वरूप संसार के जन्ममरण आदि दुःख से भयभीत दुसरे जीव ने तो जिस प्रकार तीर्थंकर भगवंत ने आज्ञा की है । उसके अनुसार सर्व यथास्थित अनुष्ठान का पालन करना चाहिए । [१३१८-१३२३] हे गौतम ! आगे तुने जो कहा है कि परिपाटी क्रम के अनुसार बताए अनुष्ठान करने चाहिए । गौतम ! दृष्टांत सुन ! बड़े समुद्र के भीतर दुसरे कइ मगरमच्छ आदि के टकराने की वजह से भयभीत कछुआ जल में बुडाबुड़ करते, किसी दुसरे ताकतवर जन्तु से काटते हुए, इंसते हुए, उपर फेंकते हुए, धक्के खाते हुए, नीगलते हुए, त्रस होते हुए छिपते, दौड़ते, पलायन होते, हरएक दिशा में उछलकर गिरते, पटकते वहाँ कई तरह की परेशानी भुगतता, सहता पलभर पलक जितना भी कहीं मुश्किल से स्थान न पाता, दुःख से संताप पाता, काफी लम्बे अरसे के बाद वो जल को अवगाहन करते करते उपर के हिस्से में जा पहुँचा । ऊपर के हिस्से में पद्मिनी का गाड़ जंगल था उसमें लील पुष्प गाड़ पड़ से कुछ भी ऊपर के हिस्से में दिखाई नहीं देता था लेकिन इधर उधर घुमते घुमते महा मुश्किल से जमीं नीलफूल में पड़ी फाट-छिद्र पाकर देखा तो उस वक्त शब्द पूर्णिमा होने से निर्मल आकाश में ग्रह नक्षत्र से परीवरेल पुनम का चन्द्र देखने में आया । [१३२४-१३२८] और फिर विकसित शोभायमान नील और श्वेत कमल शतपत्रवाले चन्द्र विकासी कमल आदि तरोताजा वनस्पति, मधुर शब्द बोलते हंस और कारंड़ जाति के पंछी चक्रवाक् आदि को सुनता था । साँतवींस वंश परम्परा में भी किसी ने न देखा हुआ उस तरह के अद्भूत तेजस्वी चन्द्रमंडल को देखकर पलभर चिन्तवन करने लगा क्या यही स्वर्ग होगा ? तो अब आनन्द देनेवाले यह तसवीर यदि मेरे बँधुओ को भी दिखाऊँ ऐसा सोचकर अपने बँधुओ को बुलाने गया । लम्बे अरसे के बाद उसको ढूँढ़कर साथ वापस यहाँ लाया। गहरे घोर अंधकारवाली भादरवा महिने की कृष्णी चतुर्दशी की रात में वापस आया होने से पहले देखी हुई समृद्धि जब उसे देखने को नहीं मिलती तब इधर-ऊधर कई बार घुमा तो भी शरद पूर्णिमा की रात की शोभा देखने के लिए समर्थ नहीं हो शका । [१३२८-१३२९] उसी प्रकार चार गति स्वरूप भव समुद्र के जीव को मनुष्यत्व पाना दुर्लभ है । वो मिल जाने के बाद अहिंसा लक्षणवाले धर्म पाकर जो प्रमाद करते है वो कई लाख भव से भी दुःख से फिर से पा शके वैसा मनुष्यत्व पाकर जैसे कछुआ फिर से
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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