SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वैसे लड़कर राजा को हरा दै । [१२८९-१२९२] शायद उस राजा से पराभव हो तो कईं प्रहार लगने से गलते-बहते लहूँ से खरड़ित शरीरवाला हाथी, घोड़े और आयुध से व्याप्त रणभूमि में नीचे मुखवाला नीचे गिर जाए । तो हे गौतम ! उस वक्त चाहे जैसा भी दुर्लभ चीज पाने की अभिलाषा, बूरी आदत और सुकुमालपन कहाँ चला गया ? जो केवल खुद के हाथ से अपना आधा हिस्सा धोकर कभी भी भूमि पर पाँव स्थापन करने का नहीं सोचते जो दुर्बल चीज की अभिलाषावाला था । ऐसा मानवने भी ऐसी अवस्था पाई । [१२९३-१२९७] यदि उसे कहा जाए कि महानुभाव धर्म कर तो प्रत्युत्तर मिले कि मैं समर्थ नहीं हूँ। तो हे गौतम ! अधन्य निर्भागी, पापकर्म करनेवाला ऐसे प्राणी को धर्मस्थान में प्रवृत्ति करने की कभी भी बुद्धि नहीं होती । वो यह धर्म एक जन्म में हो वैसा सरल कहना जैसे खाते पीते हमें सर्व होगा, तो जो जिसकी ईच्छा रखते है वो उसकी अनुकूलता के अनुसार धर्म प्रवेदन करना । तो व्रत-नियम किए बिना भी जीव मोक्ष की ईच्छा रखता है, वैसे प्राणी को रोष न हो, उस तरह से उनको धर्मकथन करना । लेकिन उनको मोक्ष का कथन न करना ऐसे लोगो का मोक्ष न हो और मृषावाद लगे । [१२९७-१३०२] दुसरा तीर्थंकर भगवंत को भी राग, द्वेष, मोह, भय, स्वच्छंद व्यवहार भूतकाल में नहीं था, और भावि में होगा भी नहीं । हे गौतम ! तीर्थंकर भगवंत कभी भी मृषावाद नहीं बोलते । क्योंकि उन्हें प्रत्यक्ष केवलज्ञान है, पूरा जगत साक्षात् देखता है । भूत भावि, वर्तमान, पुण्य-पाप और तीन लोक में जो कुछ है वो सब उनको प्रकट है, शायद पाताल उर्ध्वमुखवाला होकर स्वर्ग में चला जाए, स्वर्ग अधोमुख होकर नीचे जाए तो भी यकीनन तीर्थंकर के वचन में फर्क नहीं आता । ज्ञान-दर्शन, चारित्र घोर काफी दुष्कर तप सद्गति का मार्ग आदि को यथास्थित प्रकटपन से प्ररूपते है । वरना वचन, मन या कर्म से वो तीर्थंकर नहीं है । [१३०३-१३०४] शायद तत्काल इस भुवन का प्रलय हो तो भी वो सभी जगते के जीव, प्राणी, भूत का एकत्व हित हो उस प्रकार अनुकंपा से यथार्थ धर्म को तीर्थंकर कहते है । जिस धर्म को अच्छी तरह से आचरण किया जाए उसे दुर्भगता का दुःख दारिद्र रोग शोक दुर्गति का भय नहीं होता । और संताप उद्धेग भी नहीं होते । [१३०५-१३०६] हे भगवंत् हम ऐसा कहना नहीं चाहते कि अपनी मरजी से हम व्यवहार करते है । केवल इतना ही पूछते है कि जितना मुमकीन हो उतना वो कर शके । हे गौतम ! ऐसा करना युक्त नहीं है, वैसा पलभर भी मन से चिन्तवन करना हितावह नहीं है यदि ऐसा माने तो जानो कि उसके बल का वध किया गया है । [१३०७-१३१०] एक मानव घेबर मोरस की तरह राबडी खाने के लिए समर्थ होता है । दुसरा माँस सहित मदिरा, तीसरा स्त्री के साथ खेलने के लिए शक्तिमान हो और चौथा वो भी न कर शके, दुसरा तर्क करने के पूर्व पक्ष की स्थापना करे यानि वादविवाद कर शके । दुसरा क्लेश करने के स्वभाववाला यह विवाद न कर शके । एक-दुसरे का किया हआ देखा करे और दुसरा बकवास करे । कोई चोरी, कोई जार कर्म करे, कोई कुछ भी नहीं करता । कुछ भोजन करने के लिए या अपनी शय्या छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हो शकते । और मंच
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy