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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[९०१-९०५] या वाकई मैं मूर्ख हूँ । मेरे अपने माया शल्य से मुजे चोट पहुँची है । श्रमण को अपने मन में इस तरह की धारणा करनी युक्त न मानी जाए। पीछे से भी उसका प्रायश्चित् आलोवकर आत्मा को हलका बनाऊँगा और महाव्रत धारण करूँगा । या आलोचकर वापस मायावी कहलाऊँगा । तो दश साल तक मास खमण और पारणे आयंबिल, बीस साल तक दो महिने के लगातार उपवास और पारणे आयंबिल, पच्चीस साल तक चांद्रायण तप । पूरे आँठ साल तक छठ्ठ, अठ्ठम और चार-चार उपवास, इस तरह का महाघोर, प्रायश्चित् मेरी अपनी मरजी से यहाँ करूँगा यह प्रायश्चित् यहाँ गुरु महाराज के चरणकमल में रहकर करूँगा । [९०६-९०९] मेरे लिए यह प्रायश्चित् अधिक नहीं है क्या ? या तीर्थंकर भगवंत ने यह विधि की कल्पना क्यों की होगी ? मैं उसका अभ्यास करता हूँ । और जिसने मुझे प्रायश्चित् में जुड़ा, वो सर्व हकीकत सर्वज्ञ भगवंत जाने, मैं तो प्रायश्चित् का सेवन करूँगा । जो कुछ भी यहाँ दुष्ट चिन्तवन किया वो मेरा पाप मिथ्या हो । इस प्रकार कष्टहारी घोर प्रायश्चित् अपनी मति से किया और वैसा करके शल्यवाला वो मरके वाणवंतर देव बना । हे गौतम ! यदि उसने गुरु महाराज के समक्ष विधिवत् आलोचना की होती तो और उतने प्रायश्चित् का सेवन किया होता तो नवग्रैवेयक के उपर के हिस्से के विमान में पेदा होता। नोंध : हमारे आगम सुताणि- ३९ महानिसह मे गलती से ९१० की बजाय १००० अनुक्रम लिखा गया है ।
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[१०००-१००३] वाणमंतर देव में से च्यवकर हे गौतम! वो आसड़ तिर्यंच गति राजा के घर गधे के रूप में आएगा वहाँ हमेशा घोड़े के साथ संघट्टन करने के दोष से उसके वृषण में व्याधि पेदा हुआ और उसमें कृमि पेदा हुए । वृषण हिस्से में कृमि से खाए जानेवाले हे गौतम! आहार न मिलने से दर्द से पीड़ित था और पृथ्वी चाटता था । इतने में से साधु वापस मुड़ते थे । वैसा देखकर खुद को जाति स्मरण ज्ञान हुआ । पूर्वभव का स्मरण करके अपने आत्मा की निंदा और गर्हा करने लगा । और फिर अनसन अंगीकार किया । [१००४-१००९] कौए - कुत्तो से खाए जानेवाला हे गौतम! शुद्ध भाव से अरिहंत का स्मरण करते-करते शरीर का त्याग करके काल पाकर उस देवेन्द्र का महाघोष नाम का सामानिक देव हुआ । वहाँ दिव्य ऋद्धि अच्छी तरह से भुगतकर च्यवा । वहाँ से वो वेश्या के रूप में पेदा हुआ । जो छल किया था उसे प्रकट नहीं किया था इसलिए वहाँ से मरके कईं अधम, तुच्छ, अन्त - प्रान्तकुल में भटका कालक्रम से करके मथुरा नगरी में शिव-इन्द्र का 'दिव्यजन' नाम का पुत्र होकर प्रतिबोध पाकर श्रमणपन अंगीकार करके निर्वाण पाया ! हे गौतम ! कपट से भरे आसड़ का दृष्टांत तुम्हें बताई । जो किसी भी सर्वज्ञ भगवंत ने बताए वचन को मन से विराधना करते है, विषय के दर्द से नहीं, लेकिन उत्सुकता से भी विषय की अभिलाषा करते है । और फिर, अपने आप गुरु को निवेदन किए बिना प्रायश्चित् सेवन करते है । वो भव की पम्परा में भ्रमण करनेवाला होता है ।
[१०१०] इस प्रकार जाननेवाले को एक भी सिद्धांत आलापक की उन्मार्ग की प्ररूपणा न करनी, ऐसे मानना ।
[१०११] यदि किसी सर्व श्रुतज्ञान या उसका मतलब या एक वचन को पहचान कर मार्ग के अनुसार उसका कथन करे तो वो पाप नहीं बाँधता । इतना मानकर मन से भी उन्मार्ग