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________________ महानिशीथ-६/-1८८१ ५७ लगा । अरेरे, भ्रष्ट शीलवाले मैंने यह क्या किया ? अज्ञानपन की नींद्रा में कर्म के कीचड़वाले गड्ढे में अशुचि विष्ठा में जैसे कृमि सड़ते है वैसे सड़ा । अधन्य ऐसे मुझको धिक्कार है । मेरी अनुचित्त चेष्टा देखो । जात्य कंचन समान मेरे उत्तम आत्मा को अशुचि समान मैंने बनाया । [८८२-८८४] जितने में क्षणभंगुर ऐसे इस मेरे देह का विनाश न हो उतने में तीर्थंकर भगवंत के चरणकमल में जाकर मैं अपने गुन्हा का प्रायश्चित् करूँ । हे गौतम ! ऐसे पश्चाताप करते हुए वो यहाँ आएगा और घोर प्रायश्चित् का सेवन पाएगा । घोर और वीर तप का सेवन करके अशुभ कर्म खपाकर शुक्लध्यान की श्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाएंगे। [८८५] इसलिए हे गौतम ! इस दृष्टांत से संयम टिकाने के लिए शास्त्र के अनुसार कई उपाय सोचे । नंदिषेण ने गुरु को वेश जिस तरह से अर्पण किया आदि उपाय सोचे । [८८६-८८९] सिद्धान्त में जिस प्रकार उत्सर्ग बताए है उसे अच्छी तरह से समजना। हे गौतम ! तप करने के बावजूद भी उसे भोगावली कर्म का महा उदय था । तो भी उसे विषय की उदीरणा पेदा हुई तब आँठ गुना घोर महातप किया तो भी उसके विषय का उदय नहीं रूकता । तब भी विष भक्षण किया । पर्वत पर से भृगुपात किया । अनशन करने की अभिलाषा की वैसा करते हुए चारण मुनि ने रोका । उसके बाद गुरु को रजोहरण अर्पण करके अनजान देश में चला गया । हे गौतम ! श्रुत में बताए यह उपाय जानना। [८९०-८९४] जैसे कि जब तक गुरु को रजोहरण और प्रवज्या वापस अर्पण न की जाए तब तक चारित्र के खिलाफ किसी भी अपकार्य का आचरण न करना चाहिए | जिनेश्वर के उपदेशीत यह वेश-रजोहरण गुरु को छोड़कर दुसरे स्थान पर न छोड़ना चाहिए । अंजलिपूर्वक गुरु को रजोहरण अर्पण करना चाहिए । यदि गुरु महाराज समर्थ हो और उसे समजा शके तो समजाकर सही मार्ग पर लाए । यदि कोई दुसरा उसे समजा शके तो उसे समजाने के लिए कहना | गुरु ने भी शायद दुसरों की वाणी से उपशान्त होता हो तो एतराज न करना चाहिए। जो भव्य है, जिसने परमार्श जाना है । जगत के हालात को पहचानता है, हे गौतम ! जो इस पद की नफरत करता है वो जैसे 'आसडने' माया, प्रपंच और दंभ से चार गति में भ्रमण किया वैसे वो भी चार गति में भ्रमण करेगा । .. [८९५-९००] हे भगवंत ! माया प्रपंच करने के स्वभाववाला आसड़ कौन था ? वो हम नहीं जानते । फिर किस निमित्त से काफी दुःख से परेशान यहाँ भटका ? हे गौतम ! दुसरे किसी अंतिम कांचन समान कान्तिवाले तीर्थंकर के तीर्थ में भूतीक्ष नाम के आचार्य का आसड़ नाम का शिष्य था । महाव्रत अंगीकार करके उसने सूत्र और अर्थ का अध्ययन किया। तब विषय का दर्द पेदा नहीं हुआ था लेकिन उत्सुकता से चिन्तवन करने लगा कि सिद्धांत में ऐसी विधि बताई है । तो उस प्रकार गुरु वर्ग की काफी रंजन करके आँठ गुना तप करना, भृगुपात करना, अनशन करना । झहर खाना आदि सब मैं करूँगा, जिससे मुजे भी देवता निवारण करेंगे और कहेंगे कि तूं लम्बी आयुवाला है, तुम्हारी मौत नहीं होगी । तुम्हारी इच्छा अनुसार भोग भुगत । वेश रजोहरण गुरु महाराज को वापस अर्पण करके दुसरे किसी अनजान देश में चला जा । भोगफल भुगतकर पीछे घोर वीर तप सेवना ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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