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________________ पिंडनियुक्ति-६४३ २३३ साधु को भिक्षा देने के लिए सचित्त चीज नीचे रखकर दे तो लेना न कल्पे । सचित्त चीज पर चलती हो और दे तो न कल्पे । सचित्त चीज का संघट्टो करते हुए दे, सिर में सचित्त फूल का गजरा, फूल आदि हो तो भिक्षा लेना न कल्पे । __ पृथ्वीकाय आदि का आरम्भ करती हो उनसे लेना न कल्पे । कुदाली आदि से जमी खुदती हो तब पृथ्वीकाय का आरम्भ हो, सचित्त पानी से स्नान करती हो, कपड़े धोती हो या पेड़ को पानी देती हो तो अपकाय का आरम्भ होता है, चूल्हा जलाती हो तो तेऊकाय का आरम्भ, पंखा डालती हो या बस्ती में पवन भरती हो तो वायुकाय का आरम्भ होता है, सब्जी काटती हो तो वनस्पति काय का आरम्भ, मत्स्यादि छेदन करती हो तो उसकाय का आरम्भ । इस प्रकार आरम्भ करनेवाला भिक्षा देता हो तो उनसे भिक्षा लेना न कल्पे । लिप्तहस्त - दहीं आदि से हाथ खरड़ित हो तो उनसे भिक्षा लेना न कल्पे । हाथ खरड़ित हो तो हाथ पर जीवजन्तु चिपके हो तो उसकी विराधना इसलिए न कल्पे । लिप्तमात्र - दहीं आदि से खरड़ित बरतन दे तो लेना न कल्पे । उद्वर्तती - बड़ा, भारी या गर्म बरतन आदि उठाकर भिक्षा दे तो लेना न कल्पे । बड़ा बरतन बार-बार घुमाया न जाए इसलिए उस बरतन के नीचे मकोड़े, चींटी आए हो उसे उठाकर वापस रखने से नीचे के कीड़े - मकोड़े मर जाए, उठाने में कष्ट लगे, जल जाए आदि दोष रहे है । बड़े-बड़े बरतन उठाकर दे तो वो भिक्षा न कल्पे । साधारण - काफी लोगों की मालिकी वाली चीज सबकी अनुमति बिना दे रहे हो तो वो भिक्षा न कल्पे, द्वेष आदि दोष लगे इसलिए न कल्पे । ___चोरी किया हुआ - चोरी छूपे या चोरी करके देते हो वो भिक्षा लेना न कल्पे । नौकर - बहू आदि ने चोरीछूपे से दिया हुआ साधु ले और पीछे से उसके मालिक या सास को पता चले तो उसे मारे, बाँधे, गुस्सा करे आदि दोष हो इसलिए ऐसा आहार लेना साधु को न कल्पे। प्राभृतिका - लहाणी करने के लिए यानि दुसरों को देने के लिए बरतन में से दुसरे बरतन में नीकाला हो उसे दे तो साधु को लेना न कल्पे । सप्रत्यपाय - आहार देने से देनेवाले को या लेनेवाले के शरीर को कोई अपाय - नुकशान हो तो वो लेना न कल्पे | यह अपाय - ऊपर, नीचे और तीरछे ऐसे तीन प्रकार से। जैसे कि खड़े होने में सिर पर खींटी, दरवाजा लगे ऐसा हो, नीचे जमी पर काँटे, काच आदि पड़े हो वो लगने की संभावना हो, आसपास में गाय, भैंस आदि हो और वो शींग मोर ऐसा मुमकीन हो या ऊपर छत में सर्प आदि लटकते हो और वो खड़े होने से इस ले ऐसा हो तो साधु को भिक्षा लेना न कल्पे । अन्य उद्देश - कार्पटिकादि भिक्षाचर आदि को देने के लिए या बलि आदि का देने के लिए रखा हुआ आहार लेना न कल्पे । ऐसा आहार ग्रहण करने में अदत्तादान का दोष लगता है । क्योंकि वो आहार उस कार्पटिकादि के लिए कल्पित है । और फिर ग्लान आदि साधु को उद्देशकर आहार दिया हो तो उस ग्लान आदि के अलावा दुसरों को उपयोग के लिए देना न कल्पे, लेकिन यदि ऐसा कहा हो कि, 'वो ग्लान आदि न ले तो दुसरे कोई भी ले' तो वो आहार दुसरों को लेना कल्पे । उसके अलावा न कल्पे । आभोग - साधु को न कल्पे ऐसी चीज जान-बुझकर दे तो वो लेना न कल्पे कोई ऐसा सोचे कि, 'महानुभाव साधु हमेशा सूखा, रूखा-सूखा भिक्षा में जो मिले वो खाते है, तो
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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