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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
नाम १. तांगुली, २ . बकोड्डायक, ३. किंकर, ४. स्नातक, ५. गीधड़ की प्रकार उछलनेवाला और ६. बच्चे का मलमूत्र साफ करनेवाला ।
इस प्रकार उस साधु ने कहा कि, तुरन्त चौटे पर बैठे सभी लोग एक साथ हँसकर बोल पड़े कि, 'यह तो छह पुरुषो के गुण को धारण करनेवाला है, इसलिए स्त्रीप्रधान ऐसे इनके पास कुछ मत माँगना । यह सुनकर विष्णुमित्र बोला कि, 'मैं उन छह पुरुष जैसा नपुंसक नहीं हूँ । इसलिए तुम्हें जो चाहिए माँगो, मैं जरुर दूँगा । साधु ने कहा कि, यदि ऐसा है तो, घी, गुड़ के साथ पात्र भरकर मुझे सेव दो ।' चलो, पात्र भरकर सेव दूँ ।' ऐसा कहकर विष्णुमित्र साधु को लेकर अपने घर की ओर चलने लगा । रास्ते में साधु ने सारी बात बताई कि, 'तुम्हारे घर गया था लेकिन तुम्हारी बीवी ने देने का इन्कार किया है, यदि वो मौजुद होंगी तो नहीं देगी । विष्णुमित्र ने कहा कि, यदि ऐसा है तो तुम यहाँ खड़े रहो । थोड़ी देर के बाद तुम्हें बुलाकर सेव दूँ ।' विष्णुमित्र घर गया और अपनी बीवी को पूछा कि, 'सेव पक गई है ? घी, गुड़ सब चीजे तैयार है ? स्त्री ने कहा कि, 'हा, सबकुछ तैयार है ।' विष्णुमित्र
सब देखा और गुड़ देखते ही बोला कि, इतना गुड़ नहीं होया, ऊपर से दुसरा गुड़ लाओ ।' स्त्री सीड़ी रखकर गुड़ लेने के लिए ऊपर चड़ी, इसलिए विष्णुमित्र ने सीड़ी ले ली । फिर साधु को बुलाकर घी, गुड़, सेव देने लगा । जब सुलोचना स्त्री गुड़ लेकर नीचे उतरने जाती है तो सीड़ी नहीं थी । इसलिए नीचे देखने लगी तो विष्णुमित्र उस साधु को सेव आदि दे रहा था । यह देखते ही वो बोल पड़ी, 'अरे ! इन्हें सेव मत देना । साधुने भी उनके सामने देखकर अपनी ऊँगली नाक पर रखकर कहा कि, 'मैंने तुम्हारे नाक पर पिशाब किया ।' ऐसा कहकर घी, गुड़, सेव से भरा पात्र लेकर उपाश्रय में गया ।
इस प्रकार भिक्षा लेना मानपिंड़ कहलाता है । ऐसी भिक्षा साधु को न कल्पे । क्योंकि वो स्त्री-पुरुष को साधु के प्रति द्वेष जगे इसलिए फिर से भिक्षा आदि न दे । शायद दोनों में से किसी एक को द्वेष हो । क्रोधित होकर शायद साधु को मारे या मार डाले तो आत्मविराधना होती है, लोगों के सामने जैसे-तैसे बोले उसमें प्रवचन विराधना होती है । इसलिए साधु ने ऐसी मानपिंड़ दोषवाली भिक्षा नहीं लेनी चाहिए ।
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[५१२-५१८] आहार पाने के लिए दूसरों को पता न चले उस प्रकार से मंत्र, योग, अभिनय आदि से अपने रूप में बदलाव लाकर आहार पाना । इस प्रकार से पाया हुआ आहार मायापिंड़ नाम के दोष से दूषित माना जाता है । राजगृही नगरी में सिंहस्थ नाम का राजा राज्य करता था । उस नगर में विश्वकर्मा नाम का जानामाना नट रहता था । उसको सभी कला में कुशल अति स्वरूपवान मनोहर ऐसी दो कन्या थी । धर्मरुची नाम के आचार्य विहार करते-करते उस नगर में आ पहुँचे । उन्हें कईं शिष्य थे, उसमें आषाढ़ाभूति नाम के शिष्य तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे । एक बार आषाढ़ाभूमि नगर में भिक्षा के लिए घूमते-घूमते विश्वकर्मा नट के घर गए । विश्वकर्मा की बेटी ने सुन्दर मोदक दिया, उसे लेकर मुनि बाहर नीकले । कईं वसा से भरे, खुशबुदार मोदक देखकर आषाढ़ाभूति मुनि ने सोचा कि, 'यह उत्तम मोदक तो आचार्य महाराज की भक्ति में जाएगा । ऐसा मोदक फिर कहाँ मिलेगा १. इसलिए रूप बदलकर दुसरा लड्डू ले आऊँ । ऐसा सोचकर खुद एक आँख से काने हो गए और फिर 'धर्मलाभ' देकर उस नट के घर में गए । दुसरा लड्डू मिला । सोचा कि, 'यह मोदक तो उपाध्याय को देना पड़ेगा ।' इसलिए फिर कुबड़े का रूप धारण करके तीसरा लड्डू पाया ।