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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
फल कटु होते है । ऐसे अच्छे साधु के गुण नष्ट हो । और दुर्गुण आने में देर न लगे । 'संसर्ग से दोष ही लगता है' ऐसा एकान्त नहीं है । क्योंकि इख की बागान में लम्बे अरसे तक रहा नलस्तंभ (एक प्रकार का घास का साँथा) क्यों मधुर नहीं होता ? एवं वैडुर्यरत्न काँच के टुकड़ो के साथ लम्बे अरसे तक रखने के बाद भी क्यों काँच जैसा नहीं होता ? जगत में द्रव्य दो प्रकार के है । एक भावुक यानि जिसके संसर्ग में आए ऐसे बन जाए और दुसरे अभावुक यानि दुसरों के संसर्ग में कितने भी आने के बावजूद ऐसे के ऐसे ही रहे । वैडुर्यरत्न, मणी आदि दुसरे द्रव्य से अभावुक है जब कि आम्रवृक्ष भावुक है । भावुक द्रव्य में उसके सौ वे हिस्से जितना लवण आदि व्याप्त हो, तो पूरा द्रव्य लवण हिस्से को प्राप्त करता है | चर्म - काष्ठादि के सौ वे हिस्से में भी यदि लवण का स्पर्श हो जाए तो वो पूरा चर्मकाष्ठादि नष्ट हो जाता है । इस प्रकार कुशील का संसर्ग साधु समूह को दूषित करता है । इसलिए कुशील का संसर्ग नहीं करना चाहिए | जीव अनादि काल से संसार में घुम रहा है, इसलिए अनादि काल से परिचित होने से दोष आने में देर नहीं लगती जब कि गुण महा मुश्किल से आते है । फिर संसर्ग दोष से गुण चले जाने में देर नहीं लगती । नदी का मधुर पानी सागर में मिलने से खारा हो जाता है, ऐसे शीलवान ऐसा साधु भी कुशील साधु का संग करे तो अपने गुण को नष्ट करते है ।
[११३२-११३५] जहाँ जहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघात (हानी) हो ऐसा हो, ऐसे अनायतन स्थान को पापभीरू साधु को तुरन्त त्याग करना चाहिए । जहाँ कईं साधर्मिक (साधु) श्रद्धा संवेग बिना अनार्य हो, मूलगुण - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का सेवन करते हो, जहाँ कईं साधु श्रद्धा-संवेग रहित हो, उत्तरगुण पिंडविशुद्धि दोषयुक्त हो - बाह्य से वेश धारण किया है मूलगुण उत्तरगुण के दोष का सेवन करते हो उसे अनायतन कहते है ।
[११३६-११३८] आयतन किसे कहते है ? आयतन दो प्रकार से द्रव्य आयतन और भाव आयतन । द्रव्य-आयतन स्थान - जिनमंदिर, उपाश्रय आदि । भाव आयतन स्थान - तीन प्रकार से - ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप । जहाँ साधु काफी शीलवान, बहुश्रुत, चारित्राचार का पालन करते हो उसे आयतन कहते है । ऐसे साधु के साथ बँसना चाहिए ।
अच्छे लोगों (साधु) का संसर्ग, वो शीलगुण से दरिद्र हो तो भी उसे शील आदि गुणवाला बनाते है । जिस प्रकार मेरु पर्वत पर लगा घास भी सुनहरापन पाता है । उसी प्रकार अच्छे गुणवालों का संसर्ग करने से खुद में ऐसे गुण न हो तो भी ऐसे गुण प्राप्त होते है ।
[११३९-११४१] आयतन का सेवन करने से - यानि अच्छे शीलवान, अच्छे ज्ञानवान और अच्छे चारित्रवान साधु के साथ रहनेवाले साधु को 'कंटकपथ' की प्रकार शायद राग द्वेष आ जाए और उससे विरुद्ध आचरण हो जाए । वो प्रतिसेवन दो प्रकार से - १. मूल, २. उत्तर गुण । मूलगुण में छ प्रकार से - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन सम्बन्धी कोई दोष लगे । उत्तर गुण में तीन प्रकार से - उद्गम, उत्पादना और एषणा सम्बन्धी कोई दोष लग जाए । इसे प्रतिसेवन कहते है - प्रतिसेवन - दोष का सेक्न।
[११४२] प्रतिसेवना, मलिन, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशुद्धि और सबलीकरण एकार्थिक नाम है ।