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ओघनिर्युक्ति- ११००
पर मूर्च्छा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि मूर्च्छा परिग्रह है ।
[११०१-१११६] आत्मभाव की विशुद्धि रखनेवाला साधु वस्त्र, पात्र आदि बाह्य उपकरण का सेवन करते हुए भी अपरिग्रही है, ऐसे त्रैलोक्यदर्शी श्री जिनेश्वर भगवंत ने कहा है । यहाँ दिगम्बर मतवाला कोइ शंका करे या उपकरण होने के बावजूद भी निर्ग्रन्थ कहलाए तो फिर गृहस्थ भी उपकरण रखते है, इसलिए गृहस्थ भी निर्ग्रन्थ कहलाएंगे । उसके समाधान में बताते है कि अध्यात्म की विशुद्धि करके साधु, उपकरण होने के बावजूद निर्ग्रन्थ कहलाते है । यदि अध्यात्मविशुद्धि में न मानो तो पूरा लोक जीव से व्याप्त है, उसमें नग्न घुमनेवाले ऐसे तुमको भी हिंसकपन मानना पड़ेगा ऐसे यहाँ भी आत्मभाव विशुद्धि से साधु को निष्परिग्रहत्व है । गृहस्थ में वो भावना आ शकती है इसलिए वो निष्परिग्रही नहीं होते । अहिंसकपन भी भगवंत ने आत्मा की विशुध्धि में बताया है ।... जैसे कि इर्यासमितियुक्त ऐसे साधु के पाँव के नीचे शायद दो इन्द्रियादि जीव की विराधना हो जाए तो भी मन, वचन, कया से वो निर्दोष होने से उस निमित्त का सूक्ष्म भी पापबंध नहीं लगता । योगप्रत्यपिक बँध हो उसके पहले समय पर बँधे और दुसरे समय में भुगते जाते है । जब कि प्रमत्त पुरुष से जो हत्या होती है, उसका हिंसाजन्य कर्मबंध उस पुरुष को यकीनन होता है । और फिर हत्या न हो तो भी हिंसाजन्य पापकर्म से वो बँधा जाता है। इसलिए प्रमादी ही हिंसक माना जाता है । कहा है कि....
निश्चय से आत्मा ही हिंसक है और आत्मा ही अहिंसक है, जो अप्रमत्त है वो अहिंसक है और जो प्रमत्त है वो हिंसक है । श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन में परीणाम एक प्रधान चीज है इससे जो बाह्य क्रिया छोडकर अकेले परीणाम को ही पकड़ते है, उन्हें ध्यान में रखना चाहिए कि, बाह्यक्रिया की शुद्धि बिना, परीणाम की शुद्धि भी जीव में नहीं आ शकती, इसलिए व्यवहार और निश्चय ही मोक्ष का मार्ग है ।
[१११६] ऊपर के अनुसार विधिवत् उपकरण धारण करनेवाला साधु सर्व दोष रहित आयतन यानि गुण के स्थानभूत बनते है और जो साधु अविधिपूर्वक ग्रहण की हुई उपधि आदि धारण करते है वो अनायतन गुण के अस्थान रूप होते है ।
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[१११७] अनायतन, सावद्य, अशोधिस्थान, कुशीलसंसर्ग, यह शब्द एकार्थक है - आयतन निरवद्य शोधिस्थान, सुशीलसंसर्ग एकार्थक है ।
[१११८-११३१] साधु को अनायतन के स्थान छोड़कर आयतन के स्थान का सेवन करना चाहिए । अनायतन स्थान दो प्रकार के द्रव्य अनायतन स्थान, भाव - अनायतन स्थान | द्रव्य अनायतन स्थान रूद्र आदि के घर आदि, भाव अनायतन स्थान, लौकिक और लोकोत्तर, लौकिक भाव अनायतन स्थान वेश्या, दासी, तिर्यंच, चारण, शाक्यादि, ब्राह्मण आदि रहे हो एवं मुर्दाघर, शिकारी, सिपाही, भील, मछेरा आदि और लोक में दुगंछा के पात्र निंदनीय स्थान हो वो सभी लौकिक भाव अनायतन स्थान है । ऐसे स्थान में साधु एवं साध्वी को पलभर भी नहीं रहना चाहिए । क्योंकि पवन जैसी बदबू हो ऐसी बदबू को ले जाते है । इसलिए अनायतन स्थान में रहने से संसर्ग दोष लगता है । लोकोत्तर भाव अनायतन स्थान- जिन्होंने दीक्षा ली है और समर्थ होने के बावजूद भी संयमयोग की हानी करते हो ऐसे साधु के साथ नहीं रहना चाहिए । और फिर उनका संसर्ग भी नहीं करना चाहिए | क्योंकि आम और नीम इकट्ठे होने पर आम का मीठापन, नष्ट होता है और उसके
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