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ओघनियुक्ति-८५९
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स्थान पर बैठकर आहार करना, क्योंकि मक्खी, काँटा, बाल आदि हो तो पता चले । अंधेरे में आहार करने से मक्खी आदि आहार के साथ पेट में जाए तो उल्टी, व्याधि आदि हो । भाजन - अंधेरे में भोजन करने से जो दोष लगे वो दोष छोटे मुँहवाले पात्र में खाने से देर लगे या गिर जाए, वस्त्र आदि खराब हो, इत्यादि दोष लगे इसलिए चौड़े पात्रा में आहार लेना चाहिए । प्रक्षेप - कूकड़ी के अंड़े के अनुसार नीवाला मुँह में रखना । या मुँह विकृत न हो उतना नीवाला | गुरु महाराज देख शके ऐसे खाना यदि ऐसे न खाए तो शायद किसी साधु काफी उपयोग करे, या अपथ्य उपयोग करे तो बिमारी आदि हो, या गोचरी में स्निग्ध द्रव्य मिला हो, तो वो गुरु को बताए बिना खा जाए । इसलिए गुरु महाराज देख शके उस प्रकार से आहार लेना चाहिए । भाव - ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना अच्छी प्रकार से हो शके इसके लिए खाए । लेकिन वर्ण, बल, रूप आदि के लिए आहार न करे । जिस साधु गुरु को दिखाकर विधिवत् खाते है । वो साधु गवेषणा, ग्रहण एषणा और ग्रास एषणा से शुद्ध खाते है ।
[८६०] इस प्रकार एक साधु को खाने की विधि संक्षेप में बताई है । उसी प्रकार कईं साधु के खाने के विधि समज लेना । लेकिन और साधु मांडलीबद्ध खाए ।
[८६१] मांडली करने के कारण - अति प्लान, बाल, वृद्ध, शैक्ष, प्राघुर्णक, अलब्धिवान या असमर्थ के कारण से मांडली अलग करे ।
[८६२-८६८] भिक्षा के लिए गए हुए साधु का आने का समय हो इसलिए वसतिपालक नंदीपात्र पड़ीलेहण करके तैयार रखे, साधु आकर उसमें पानी डाले, फिर पानी साफ हो जाए तो दुसरे पात्र में डाल दे । गच्छ में साधु हो उस अनुसार पात्र रखे । गच्छ बड़ा हो तो दो, तीन या पाँच नंदीपात्र रखे ।
वसतिपालक नंदीपात्र रखने के लिए समर्थ न हो या नंदीपात्र न हो, तो साधु अपने पात्र में चार अंगुल कम पानी लाए, जिससे एक दुसरे में डालकर पानी साफ कर शके । पानी में चींटी, मकोड़े, कूड़ा आदि हो तो पानी गलते समय जयणापूर्वक चींटी आदि को दूर करे। गृहस्थ के सामने सुख से पानी ले शके, आचार्य आदि भी उपयोग कर शके । जीवदया का पालन हो आदि कारण से भी पानी गलना चाहिए । साधुओंने मांडली में यथास्थान बैठकर सभी साधु न आए तब तक स्वाध्याय करे । कोइ असहिष्णु हो तो उसे पहले खाने के लिए दे ।
[८६९-८७५] गीतार्थ, रत्नाधिक और अलुब्ध ऐसे मंडली स्थविर आचार्य की अनुमति लेकर मांडली में आए । गीतार्थ, रत्नाधिक और अलुब्ध इन तीन के आँठ भेद है ।।
गीतार्थ, रत्नाधिक, अलुब्ध । गीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, गीतार्थ, लघुपर्याय, अलुब्ध। गीतार्थ, लघुपर्याय, अलुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक अलुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, अगीतार्थ, रत्नाधिक, लुब्ध, अगीतार्थ, लगुपर्याय, अलुब्ध, अगीतार्थ, लघुपर्याय, लुब्ध । इसमें २-४-६-८ भागा दुष्ट है । ५-७ अपवाद से शुद्ध १-३ शुद्ध है । शुद्ध मंडली स्थविर सभी साधुओ को आहार आदि बाँट दे । रत्नाधिक साधु पूर्वाभिमुख बैठे, बाकी साधु यथायोग्य पर्याय के अनुसार मांडली बद्ध बैठे । गोचरी करते समय सभी साधु साथ में भस्म का कूड़ रखे, खाने के समय, गृहस्थ आदि भीतर न आ जाए उसके लिए एक साधु (उपवासी या जल्द खा लिया हो वो) पता रखने के लिए किनारे पर बैठे ।