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________________ ओघनियुक्ति-७२८ १६३ का त्याग करवाते है और शुद्ध आहार ग्रहण करवाते है । जो साधु आचार्य भगवंत के कहने के अनुसार व्यवहार करते है वो थोड़े ही समय में सारे कर्मो का क्षय करते है । जो आचार्य भगवंत के वचन के अनुसार नहीं रहते वो कई भव में जन्म, जरा, मरण के दुःख पाते है । [७२९-७८२] भावग्रहण एषणा के ११ द्वार बताए है वो इस प्रकार - स्थान, दायक, गमन, ग्रहण, आगमन, प्राप्त, वशवृत, पतित, गुरुक, त्रिविध भाव । स्थान तीन प्रकार के - १. आत्म-उपघातिक, २. प्रवचन उपघातिक, ३. संयम उपधातिक | आत्म उपघातिक स्थान – गाय, भैंस आदि जहाँ हो, वहीं खड़े रहकर भिक्षा ग्रहण करने में वो गाय, भैंस आदि शींग या लात मारे, तो गिर जाए, लगे या पात्र तूट जाए । इससे छ काय जीव की विराधना हो इसलिए ऐसी जगह एवं जहाँ जीर्ण दीवार, काँटा, बील आदि हो वहाँ भी खड़े रहकर भिक्षा ग्रहण न करनी । प्रवचन उपघातिक स्थान – ठल्ला मात्रा के स्थान, गृहस्थ को स्नान करने के स्थान, खाल आदि अशुचिवाले स्थान ऐसे स्थान पर खड़े रहकर भिक्षा ग्रहण करने से प्रवचन की हीलना होती है इसलिए ऐसे स्थान पर खड़े रहकर भिक्षा ग्रहण नहीं करना । दायक - आठ साल से कम उम्र का बच्चा, नौकर, वृद्ध, नपुंसक, मत्त (दारू पीया हुआ) पागल, क्रोधित, भूत आदि के वलगणवाला, बिना हाथ के, बिना पाँव के, अंधा, बेड़ीवाला, कोढ़ बिमारीवाला, गर्भवाली स्त्री, खंडन करती, चक्की में पीसती, रूईं बनाती आदि से भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । अपवाद में कोई दोष हो ऐसा न हो तो उपयोगपूर्वक भिक्षा ग्रहण करे । गमन - भिक्षा देनेवाला भिक्षा लेने के लिए भीतर जाए तो उस पर नीचे की जमीं और आसपास भी न देखे यदि वो जाते हुए पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि का संघट्टो करते हो तो भिक्षा ग्रहण न करे । क्योंकि ऐसी भिक्षा ग्रहण करने से संयम विराधना हो या देनेवाले को भीतर के हिस्से में जाते शायद साँप इँस ले, तो गृहस्थ आदि का मिथ्यात्व हो । ग्रहण-छोटा-नीचा द्वार हो, जहाँ अच्छी प्रकार से देख न शकते हो, अलमारी बन्द हो, दरवज्जा बंध हो, कई लोग आते-जाते हो, गाड़ा आदि पड़े हो, वहाँ भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । यदि अच्छी प्रकार से उपयोग रह शके ऐसा हो तो भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । आगमन - भिक्षा लेकर आनेवाले गृहस्थ पृथ्वी आदि की विराधना करते हुए आ रहा हो तो भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । प्राप्त-देनेवाले का हाथ कच्चे पानीवाला है कि नहीं? वो देखना चाहिए । आहार आदि संसक्त है कि क्या ? वो देखे । भाजन गीला है कि क्या ? वो देखे । कच्चा पानी संसक्त या गीला हो तो भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । परावर्त - आहार पात्र में ग्रहण करने के बाद जांच करे । योगवाला पिंड़ है या स्वाभाविक वो देखे । यदि योगवाला या बनावटी मिलावट आदि लगे तो तोड़कर देखे । न देखे तो शायद उसमें झहर मिलाया हो या कुछ कार्मण किया हो, या सुवर्ण आदि डाला हो, काँटा आदि हो तो संयम विराधना और आत्म विराधना होती है । सुवर्ण आदि हो तो वो वापस दे । गुरुक-बड़ा पत्थर आदि से इँका हुआ हो, उसे एक ओर करने जाते ही गृहस्थ को शायद इजा हो । देने का भाजन काफी बड़ा हो या भारी वजनदार हो, उसे उठाकर देने जाए तो शायद हाथ में से गिर पड़े तो गृहस्थ जल जाए या पाँव में इजा हो या उसमें रखी चीज फर्श पर पड़े तो छह काय जीव की विराधना होती है, इसलिए ऐसे बड़े या भारी भाजन से भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । त्रिविध - उसमें काल तीन प्रकारसे ग्रीष्म, हेमन्त और वर्षाकाल एवं देनेवाले तीन प्रकार से स्त्री, पुरुष और नपुंसक, वो हर एक तरुण, मध्यम और स्थविर । नपुंसक शीत होते है ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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