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________________ १५६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद जीवजन्तु या वनस्पति न हो, एवं प्रासुक सम - समान भूमि में छाँव हो वहाँ स्थंडिल के लिए जाना । प्रासुक भूमि उत्कृष्ट से बारह योजन की, जघन्य से एक हाथ लम्बी चौड़ी, आगाढ़ कारण से जघन्य से चार अंगुल लम्बी चौड़ी और दश दोष से रहित जगह में उपयोग करना। आत्मा उपघात - बागीचा आदि में जाने से । प्रवचन उपघात - बूरा स्थान विष्टा आदि हो वहाँ जाने से । संयम उपघात - अग्नि, वनस्पति आदि हो, जहाँ जाने से षटजीवनिकाय की विराधना हो । विषम जगह में जाते ही गिर जाए, इससे आत्मविराधना, मात्रा आदि का रेला हो तो उसमें त्रस आदि जीव की विराधना, इसलिए संयम विराधना । पोलाण युक्त जगह में जाने से, उसमें बिच्छु आदि हो तो इस ले इसलिए आत्म विराधना । पोलाणयुक्त स्थान में पानी आदि जाने से त्रस जीव की विराधना, इसलिए संयम विराधना । घरों के पास में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना । बीलवाले जगह में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना । बीज त्रस आदि जीव हो वहाँ जाए तो संयम विराधना और आत्मविराधना । सचित्त भूमि में जाए तो संयम विराधना और आत्म विराधना, एक हाथ से कम अचित्त भूमि में जाए तो संयम विराधना, आत्म विराधना । इन दश के एकादि सांयोगिक भांगा १०२४ होते है । [५३३-५३७] अवष्टम्भ - लीपिंत दीवार खंभा आदि का सहारा न लेना । वहाँ हमेशा त्रस जीव रहे होते है । पुंजकर भी सहारा मत लेना । सहारा लेने की जरुर हो तो फर्श आदि लगाई हुइ दीवार आदि हो वहाँ पुंजकर सहारा लेना, सामान्य जीव का मर्दन आदि हो तो संयम विराधना और बिच्छु आदि हो तो आत्म विराधना | [५३८-५४७] मार्ग – रास्ते में चलते ही चार हाथ प्रमाण भूमि देखकर चलना, क्योंकि चार हाथ के भीतर दृष्टि रखी हो तो जीव आदि देखते ही अचानक पाँव रखने से रूक नहीं शकते, चार हाथ से दूर नजर रखी हो तो पास में रहे जीव की रक्षा नहीं हो शकती, देखे बिना चले तो रास्ते में खड्डा आदि आने से गिर पड़े, इससे पाँव में काँटा आदि लगे या पाँव में मोच आ जाए, एवं जीव की विराधना आदि हो, पात्र तूटे, लोकोपवाद हो आदि संयम और आत्म विराधना हो । इस लिए चार हाथ प्रमाण भूमि पर नजर रखकर उपयोगपूर्वक चलना चाहिए । इस प्रकार पडिलेहेण की विधि श्री गणधर भगवंत ने बताई है । इस पडिलेहेण विधि का आचारण करने से चरणकरणानुयोगवाले साधु कई भव में बाँधे अनन्त कर्म को खपाते है । [५४८-५५३] अब पिंड और एषणा का स्वरूप गुरु उपदेश के अनुसार कहते है। पिंड़ की एषणा तीन प्रकार से - १. गवेषणा, २. ग्रहण एषणा, ३. ग्रास एषणा | पिंड चार प्रकार से - नाम स्थापना. द्रव्य भाव । नाम और स्थापना का अर्थ सगम है, द्रव्य पिंड़ तीन प्रकार से - सचित्त, अचित्त और मिश्र, उसमें अचित्त पिंड़ दश प्रकार से १. पृथ्वीकाय पिंड़, २. अपकाय पिंड़, ३. तेजस्काय पिंड़, ४. वायुकाय पिंड, ५. वनस्पतिकाय पिंड़, ६. बेइन्द्रिय पिंड़, ७. तेइन्द्रिय पिंड, ८. चऊरिन्द्रिय पिंड़, ९. पंचेन्द्रिय पिंड़ और १०. पात्र के लिए लेप पिंड़ । सचित्त पिंड और मिश्र पिंड-लेप पिंड के अलावा नौ-नौ प्रकार से । पृथ्वीकाय से पंचेन्द्रिय तक पिंड़ तीन प्रकार से । सचित्त जीववाला, मिश्र जीवसहित और जीवरहित, अचित्त जीव रहित । [५५४-५५९] पृथ्वीकाय पिंड़-सचित्त, मिश्र, अचित्त । सचित्त दो प्रकार से -
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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