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________________ ओघनिर्युक्ति-४६९ १५३ बाद एक वस्त्र की पड़िलेहेणा करे । एक साथ ज्यादा वस्त्र न देखे । अच्छी प्रकार इस्तेमाल पूर्वक वस्त्र की पड़िलेहेणा करे । अखोड़ा पखोड़ा की गिनती अच्छी प्रकार रखे । सुबह में पड़िलेहेणा का समय - अरूणोदय प्रभा फटे तब पड़िलेहेणा करना । अरूणोदय प्रभा फटे तब आवश्यक प्रतिक्रमण करने के बाद पड़िलेहेणा करना एक दुसरे का मुँह देख के, तब पड़िलेहेणा करना । हाथ की लकीर दिखे तब पड़िलेहेणा करना । सिद्धांतवादी कहते है कि यह सभी आदेश सही नहीं है । क्योंकि उपाश्रय में अंधेरा हो तो सूर्य नीकला हो तो भी हाथ की लकीरे न दिखे । बाकी के तीन में अंधेरा होता है । उत्सर्ग की प्रकार अंधेरा पूरा होने के बाद मुहपत्ति, रजोहरण, दो निषद्या - रजोहरण पर का वस्त्र, चौलपट्टा तीन कपड़े संथारो और उतरपट्टा इन दश से पड़िलेहेणा पूरी होते ही सूर्योदय होता है । उस प्रकार से पड़िलेहेण शुरू करना । अपवाद से जितना समय उस प्रकार से पड़िलेण करे । पड़िलेहेण में विपर्यास न करे । अपवाद से करे । विपर्यास दो प्रकार से पुरुष विपर्यास और उपधि विपर्यास । पुरुष विपर्यास आम तोर पर आचार्य आदि की पड़िलेहेण करनेवाले अभिग्रहवाले साधु पहुँच शके ऐसा हो, तो गुरु को पूछकर खुद की या ग्लान आदि की उपधि पड़िलेहणा करे । यदि अभिग्रहवाले न हो और अपनी उपधि पड़िलेहे तो अनाचार होता है । और पड़िलेहेण करते आपस में मैथुन सम्बन्धी कथा आदि बातें करे, श्रावक आदि को पञ्चकखाण करवाए, साधु को पाठ दे या खुद पाठ ग्रहण करे, तो भी अनाचार, छह काय जीव की विराधना का दोष लगे । किसी दिन साधु कुम्हार आदि की वसति में उतरे हो, वहाँ पड़िलेहण करते बात-चीत करते उपयोग न रहने से, पानी का मटका आदि फूट जाए, इसलिए वो पानी, मिट्टी, अग्नि, बीज, कुंथुंवा आदि पर जाए, इसलिए उस जीव की विराधना हो, जहाँ अग्नि, वहाँ वायु यकीनन होता है । इस प्रकार से छ जीवकाय की विराधना न हो उसके लिए पड़िलेहणा करनी चाहिए । उपधि विपर्यास - किसी चोर आदि आए हुए हो, तो पहले पात्र की पड़िलेहणा करके, फिर वस्त्र की पड़िलेहणा करे । इस प्रकार विकाल सागारिक गृहस्थ आ जाए तो भी पड़िलेहण मे विपर्यास करे । पड़िलेहण और दुसरे भी जो अनुष्ठान भगवंत ने ता है । वो सभी एक, दुसरे को बाधा न पहुँचे उस प्रकार से सभी अनुष्ठान करने से दुःख का क्षय होता है । यानि कर्म की निर्जरा कराने में समर्थ होता है । 1 - - श्री जिनेश्वर भगवंत के बताए हुए योग में से एक-एक योग की सम्यक् प्रकार से आराधना करते हुए अनन्त आत्मा केवली बने है । उस अनुसार पड़िलेहण करते हुए भी अनन्त आत्मा मोक्ष में गइ है, तो हम केवल पड़िलेहेण करते है, तो फिर दुसरे अनुष्ठान क्यो ? यह बात सही नहीं, क्योंकि दुसरे अनुष्ठान न करे और केवल पडिलेहण करते रहे तो वो आत्मा पूरी प्रकार आराधक नहीं हो शकता केवल देश से ही आराधक बने । इसलिए सभी अनुष्ठान का आचरण करना चाहिए । [४७०-४७६] सर्व आराधक किसे कहे ? पाँच इन्द्रिय से गुप्त, मन, वचन और काया के योगयुक्त बारह प्रकार के तप का आचरण, इन्द्रिय और मन पर का काबू, सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करनेवाला संपूर्ण आराधक होता है । पाँच इन्द्रिय से गुप्त - यानि पाँच इन्द्रिय के विषयशब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श पाने की उम्मीद न रखना, यानि प्राप्त हुए विषय के प्रति अच्छे हो - अनुकूल हो उसमें राग न करना, बूरे-प्रतिकूल हो उसमें द्वेष न करना । मन, वचन और काया के योग से युक्त यानि मन, वचन और काया को अशुभ
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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