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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्रवेश के दिन किसी को उपवास हो तो वो मंगल है । जिनालय जाते समय आचार्य के साथ एक-दो साधु पात्रा लेकर जाए । क्योंकि वहाँ किसी गृहस्थ को गोचरी देने की भावना हो तो ले शके । यदि पात्रा न हो तो गृहस्थ का भरोसा तूट जाए या साधु ऐसा कहे कि, 'पात्रा लेकर आएगे । तो गृहस्थ वो चीज रख दे, इसलिए स्थापना दोष लगे । सभी साधु को साथ में नहीं जाना चाहिए, यदि सब साथ में जाए तो गृहस्थ को ऐसा होता है कि, 'किसको दूं
और किसको न दूँ इसलिए साधु को देखकर भय लगे या तो ऐसा हो कि, 'यह सभी ब्राह्मणभट्ट जैसे भूखे है । इसलिए आचार्य के साथ तीन, दो या एक साधु पात्रा लेकर जाए
और गृहस्थ विनती करे तो घृत आदि वहोरे । यदि उस क्षेत्र में पहले मास कल्प न किया हो यानि पहले आए हुए हो, तो परिचित साधु चैत्यदर्शन करने के लिए जाए तब या गोचरी के लिए जाए तब दान देनेवाले आदि के कुल दिखाए या तो प्रतिक्रमण करने के बाद दानादि कुल कहे । प्रतिक्रमण करने के बाद आचार्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षक को बुलाकर स्थापनादि कुल पूछेक्षेत्रप्रत्युपेक्षक वो बताए । क्षेत्रप्रत्युपेक्षक को पूछे बिना साधु स्थापनादि कुल में जाए तो संयम विराधना, आत्मविराधना आदि दोष हो । स्थापना कुल में गीतार्थ संघाटक जाए इस प्रकार स्थापनादि कुल स्थापन करने के कारण यह है कि आचार्य ग्लान प्राधुर्णक आदि को उचित भिक्षा मिल शके । यदि सभी साधु स्थापना कुल में भिक्षा लेने जाए तो गृहस्थ को कदर्थना हो और आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्य का क्षय हो । जिससे चाहे ऐसी चीज न मिले । जिस प्रकार किसी पुरुष पराक्रमी शिकारी कुत्ते को छू-छू करने के बावजूद कुत्ता दौड़े नहीं और काम न करे । इस प्रकार बार-बार बिना कारण स्थापनादि कुल में से आहार आदि ग्रहण करने से जब ग्लान, प्राघुर्णक आदि के लिए जरूर होती है तब आहारादि नहीं मिल शकते । क्योंकि उसने काफी साधुओ को घृतादि देने के कारण से घृत आदि खत्म हो जाए। प्रान्त-विरोधी गृहस्थ हो तो साधु को घी आदि दे दिया हो तो स्त्री को मारे या मार भी डाले या उस पर गुस्सा करे कि तुने साधुओ को घृतादि दिया इसलिए खत्म हो गया, भद्रक हो तो नया खरीदे या करवाए । स्थापना कुल रखने से ग्लान, आचार्य, बाल, वृद्ध, तपस्वी प्राघुर्णक आदि की योग्य भक्ति की जाती है, इसलिए स्थापना कुल रखने चाहिए, वहाँ कुछ गीतार्थ के अलावा सभी साधु को नहीं जाना । कहा है कि आचार्य की अनुकंपा भक्ति से गच्छ की अनुकंपा, गच्छ की अनुकंपा से तीर्थ की परम्परा चलती है । इस स्थापनादि कुल में थोड़ेथोड़े दिन के फाँसले से भी कारण बिना जाना । क्योंकि उन्हें पता चले कि यहाँ कुछ साधु आदि रहे हुए है । इसके लिए गाय और बगीचे का दृष्टांत जानना । गाय को दोहते रहे और बगीचे में से फूल लेते रहे तो हररोज दूध, फूल मिलते रहे, न ले तो उल्टा सूख जाए ।
[३८८-४२८] दश प्रकार के साधु आचार्य की वैयावच्च सेवा के लिए अनुचित है । आलसी ! घसिर ! सोए रहनेवाला । तपस्वी, क्रोधी, मानी, मायी, लालची, उत्सुक, प्रतिबद्ध।
___ आलसी - प्रमादी होने से समय के अनुसार गोचरी पर न जाए । घसिर – ज्यादा खाते रहने से अपना ही आहार पहले पूरा करे, उतने में भिक्षा का समय हो जाए । ऊंघणशी - सोता रहे, वहाँ गोचरी का समय पूरा हो जाए । शायद जल्दी जाए, तब भिक्षा की देर हो तो वापस आकर सो जाए उतने में भिक्षा का समय नींद में चला जाए । तपस्वी - गोचरी जाए तो तपस्वी होने से देर लगे । इसलिए आचार्य को परितापनादि हो । तपस्वी यदि पहली आचार्य की गोचरी लाए तो तपस्वी को परितापनादि हो । क्रोधी – गोचरी करके जाए वहाँ