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आवस्सयं-४/१८
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से, बरतन का दुसरा द्रव्य खाली करके उसके द्वारा दी जाती भिक्षा लेने से, विशिष्ट द्रव्य माँगकर लेने से जो "उद्गम", "उत्पादन", "एषणा" अपरिशुद्ध होने के बावजूद भी ले और लेकर न परठवे यानि उपभोग करे ऐसा करने से लगे अतिचार समान मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।
[१९] मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । (लेकिन किसका ?) दिन और रात के पहले और अन्तिम दो प्रहर ऐसे चार काल स्वाध्याय न करने के समान अतिचार का, दिन की पहली - अन्तिम पोरिसी रूप उभयकाल से पात्र-उपकरण आदि की प्रतिलेखना (दृष्टि के द्वारा देखना) न की या अविधि से की, सर्वथा प्रमार्जना न की या अविधि से प्रमार्जना की और फिर अतिक्रम-व्यतिक्रम, अतिचार-अनाचार का सेवन किया उस तरह से मैने दिवस सम्बन्धी जो अतिचार सेवन किया हो वो मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो ।
[२०-२१] मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (लेकिन किसका ?) एक, दो, तीन आदि भेदभाव के द्वारा बताते है । (यहाँ मिच्छामि दुक्कड़म् यानि मेरा वो पाप मिथ्या हो वो बात एकविध आदि हर एक दोष के साथ जुड़ना)
अविरति रूप एक असंयम से (अब के सभी पद असंयम का विस्तार समजना) दो बँधन से राग और द्वेष समान बँधन से, मन, वचन, काया, दंड़ सेवन से, मन, वचन, काया, गुप्ति का पालन न करने से, माया-नियाण, मिथ्यात्व शल्य के सेवन से ऋद्धि रस-शाता का अभिमान या लालच समान अशुभ भाव से, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विराधना थकी, क्रोध, मान, माया, लोभ, रूप चार कषाय के सेवन से, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह की इच्छा से स्त्री, देश, भोजन, राज सम्बन्धी विकथा करने से आर्त-रौद्र ध्यान करने और धर्म, शुकल ध्यान न करने से ।
[२२-२४] कायिकी, अधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी उन पाँच में से किसी क्रिया या प्रवृत्ति करने से, शब्द-रूप, गंध, रस, स्पर्श उन पाँच कामगुण से, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह उन पाँच के विरमण यानि न रूकने से, इर्या, भाषा, एषणा, वस्त्र, पात्र लेना, रखना, मल, मूत्र, कफ, मैल, नाक का मैल को निर्जीव भूमि से परिष्ठापन न करने से, पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, वनस्पति, त्रस उन छ काय की विराधना करने से, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या का सेवन करने से और तेजो, पद्म, शुक्ल लेश्या में प्रवृत्ति न करने से ।
[२५-२६] इहलोक-परलोक आदि साँत भय स्थान के कारण से, जातिमद-कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति-शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय - अनर्थाय हिंसा आदि तेरह तरह की क्रिया के सेवन से, चौदह भूतग्राम अर्थात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय आदि पर्याप्ता-अपर्याप्ता चौदह भेद से जो जीव बताए है उसकी अश्रद्धा-विपरीत प्ररूपणा या हत्या आदि करने से, पंद्रह परमाधामी देव के लिए अश्रद्धा करने से, सूयगड़ांग में 'गाथा' नामक अध्ययन पर्यन्त के सोलह अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, पाँच आश्रव से विरमण आदि सतरह प्रकार के संयम का उचित पालन न करने से, अठारह तरह के अब्रह्म के आचरण से, ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययन के लिए अश्रद्धा आदि करने से, अजयणा से चलना आदि बीश असमाधि स्थान में स्थिरता या दृढ़ता की कमी हो वैसे इस बीस स्थान का सेवन करने से, हस्तक्रिया आदि चारित्र को मलिन करनेवाले इक्कीस शबल दोष