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________________ ११२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पर्वत के समीप में हमारा एक गोकुल है, उसमें एक योजन तक गोचरभूमि है, उसका राज्य की ओर से लेनेवाला कर मक्त करवाना । राजाने कहा कि भले, वैसा होगा । इस प्रकार सबको अदरिद्र और करमुक्त गोकुल करके वो उच्चार न करने के लायक नामवाले सुज्ञशीवने अपनी लड़की सुज्ञश्री के साथ शादी की ।। उन दोनों के बीच आपस में प्रीति पेदा हुइ । स्नेहानुराग से काफी रंगे हुए मानस वाले अपना समय बीता रहे है । उतने में घर आए हुए साधु को उनको वहोराए बिना वापस जाते देखकर हा हा पूर्वक आक्रंदन करती सुज्ञश्री को सुज्ञशीव ने पूछा कि हे प्रिये ! पहले किसी दिन न देखे हुए भिक्षाचर युगल को देखकर क्यों इस तरह की उदासीन अवस्था पाइ तब उसने कहा मेरी मालकीन थी तब इस साधुओ को बहुत भक्ष्य अन्न-पानी देकर उनके पात्र भर देते थे । उसके बाद हर्ष पाइ हुइ खुश मालकीन मस्तक नीचा करके उसके चरणाग्र में प्रणाम करती थी । उन्हें देखते ही मुझे आज वो मालकीन याद आ गई । तब फिर उस पापिणी ने पूछा कि - तुम्हारी स्वामिनी कौन थी? तब हे गौतम ! गला बैठ जाए ऐसा कठिन रुदन करनेवाली दुःख न समजे ऐसे शब्द बोलते हुए व्याकुल अश्रु गिरानेवाली सुज्ञश्रीने अपने पिता से शुरु करके आज दिन तक की सारी बाते बताई । तब महापापकर्मी ऐसे सुज्ञशीव को मालूम हुआ कि - यह तो सुज्ञश्री मेरी अपनी ही बेटी है । ऐसी अज्ञात स्त्री को ऐसे रूप कान्ति शोभा लावण्य सौभाग्य समुदायवाली शोभा न हो, ऐसा चिन्तवन करके विलाप करने लगा कि [१५१५] इस प्रकार के पापकर्म करने में रक्त ऐसे मुझ पर धड़गड़ आवाज करते वज्र तूट न पड़े तो फिर यहाँ से कहाँ जाकर मैं शुद्ध बन शकुंगा ? [१५१६] ऐसा बोलकर महापाप कर्म करनेवाला वो सोचने लगा कि क्या अब मैं शस्त्र के द्वारा मेरे गात्र को तिल-तिल जितने टुकड़े करके छेद कर डालूँ ? या तो ऊँचे पर्वत के शिखर से गिरकर अनन्त पाप समूह के ढ़ेर समान इस दुष्ट शरीर के टुकड़े कर दूं ? या तो लोहार की शाला में जाकर अच्छी तरह से तपाकर लाल किए लोहे की तरह मोटे घण से कोइ टीपे उस तरह लम्बे अरसे तक मेरे शरीर को टीपवाऊँ ? या तो क्या मैं अच्छी तरह से मेरे शरीर के बीच में करवत के तीक्ष्ण दाँत से कटवाऊँ और उसमें अच्छी तरह से ऊबाले हुए सीसे, ताम्र, काँस, लोह, लुण और उसनासाजी खार के रस डालूँ ? या फिर मेरे अपने हाथ से ही मेरा मस्तक छेद डालूँ ? या तो मैं – मगरमच्छ के घर में प्रवेश करूँ या फिर दो पेड़ के बीच मुझे रस्सी से बाँधकर लटकाकर नीचे मुँह और पाँव ऊपर हो उस तरह रखकर नीचे अग्नि जलाऊँ ? ज्यादा क्या कहे ? मसाण भूमि में पहुँचकर काष्ट की चिता में मेरे शरीर को जला डालू । ऐसा सोचकर हे गौतम ! वहाँ बड़ी चिता बनवाई, उसके बाद समग्र लोक की मोजदगी में लम्बे अरसे तक अपनी आत्मा की निंदा करके सब लोगों को जाहिर किया कि मैंने न करने के लायक इस प्रकार का अपकार्य किया है । ऐसा कहकर चिता पर आरूढ़ हुआ तब भवितव्यता योग से उस प्रकार के द्रव्य और चूर्णि के योग के संसर्ग से वो सब काष्ट है - ऐसा मानकर फूंकने के बावजूद कई तरह के उपाय करने के बावजूद भी अग्नि न जला। तब फिर लोगोंने नफरत की कि यह अग्नि भी तुम्हें सहारा नहीं दे रहा । तुम्हारी पाप परिणति कितनी कठिन है, कि यह अग्नि भी नहीं जला रहा । ऐसा कहकर उन लोगो ने दोनों को गोकुल में से नीकाल बाहर किया ।
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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